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अन्तर्द्वन्द्रों के पार
नगर जिनालय
यह नगर के महाजनों के द्वारा रक्षित था। इसका एक अन्य नाम 'श्रीनिलय' भी रहा आया। इसमें आदिनाथ की ढाई फुट ऊँची मूर्ति है। नवरंग के बाईं ओर एक गुफा में ब्रह्मदेव की दो फुट ऊँची मूर्ति है जिसके दायें हाथ में फल और बायें हाथ में कोड़े जैसी कोई वस्तु है। उसके पैरों में खड़ाऊं हैं । पीठिका पर घोड़े का चिह्न है । लेख क्र० 457 के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण नागदेव मन्त्री के द्वारा शक संवत् 1118 में हुआ था। इस लेख में गुरु नयकीर्तिदेव की निषद्या तथा 'नृत्यरंग' और 'अश्मकुट्टिम' (पाषाण-भूमि) के निर्माण का उल्लेख भी है। मंगायि बसदि
त्रिभुवनचूड़ामणि मंगायि ने इस मन्दिर का निर्माण कराया था। इसमें शान्तिनाथ की साढ़े चार फुट ऊँची मति है जिसकी प्रतिष्ठा विजयनगर देवराय महाराज की रानी भीमादेवी ने करायी थी। नवरंग में वर्धमान स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठापना पण्डित देव को शिष्या वसतायि द्वारा हुई थी। मन्दिर के सम्मुख दो सुन्दर हाथी बने हैं।
जैन मठ ___ यह स्वस्ति श्री भट्टारक स्वामी का निवास-स्थान है। इसमें एक सुन्दर खुला आंगन है । मण्डप-स्तम्भों पर चित्रकारी है। तीन गर्भगृहों में पाषाण और धातु की अनेक प्रतिमाएं हैं। __ कुछ मूर्तियाँ बहुत अर्वाचीन हैं जिन पर संस्कृत व तमिल भाषा के लेख हैं। ये ग्रन्थ-लिपि में लिखे हैं। अधिकांश मतियाँ तमिलनाडु के जैन बन्धुओं द्वारा प्रतिष्ठित हैं । नवदेवता बिम्ब में पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म,जिनागम, चैत्य, चैत्यालय आदि चित्रित हैं। मठ की दीवारों पर तीर्थंकरों और जैन राजाओं के जीवन-चित्र, दशहरा-दरबार का चित्रण, पार्श्वनाथ का समवसरण, भरत और चक्रवर्ती के जीवन-चित्र, नागकुमार के जीवन-वृतान्त और वन-दृश्य में षड्लेश्याओं का चित्रण आकर्षक हैं। __ ऊपर की मंजिल में पार्श्वनाथ मूर्ति है। काले पाषाण पर चौबीस तीर्थकर उत्कीर्ण हैं । चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर मूर्ति की स्थापना के उपरान्त अपने गुरु नेमिचन्द्र को यहाँ मठाधीश नियुक्त किया था। वैसे यह गुरु-परम्परा और भी पहले से चली आ रही थी। लेख क्र. 360 तथा 364 के अनुसार यहाँ पर आसीन गुरु चारुकीति पण्डित ने होयसल नरेश बल्लाल प्रथम (1100-1106) को व्याधिमुक्त करके 'बल्लाल-जीवरक्षक' की उपाधि प्राप्त की थी।