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अन्तर्द्वन्द्वों के पार
के वरदान से चन्द्रगुप्त मौर्य का जो व्यक्तित्व विकसित हुआ और उसके पौरुष ने देश को जो एकछत्र साम्राज्य का बोध दिया वह देश के आत्म-सम्मान की रक्षा का स्वर्णिम युग है । चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास-कालीन भारत का प्रथम सम्राट् है । जो राष्ट्र छिन्न-भिन्न और पराधीन हो गया था उसमें चन्द्रगुप्त ने नयी प्राण-चेतना जंगायी थी। उसने पश्चिमोत्तर प्रदेश की यवन, काम्बोज, पारसीक, सबर और म्लेच्छ कहलाने वाली जातियों की सेना तैयार की थी। अनेक युद्धों के सफल अभियान से सम्पूर्ण भारत को एक विशाल साम्राज्य के रूप में संगठित एवं संचालित किया था। विन्सेंट स्मिथ ने अपने इतिहास में लिखा है
"दो हजार साल से भी अधिक हुए, भारत के प्रथम सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस देश की उस वैधानिक सीमा को प्राप्त कर लिया था जिसकी लालसा में शताब्दियों बाद का ब्रिटिश साम्राज्य आहें भरता रहा और जिसे सोलहवीं-सत्रहवीं सदियों के मुगल सम्राटों ने भी कभी पूर्णता से प्राप्त नहीं किया।") .
जैनेतर स्रोतों में कौटिल्य-अर्थशास्त्र के रचियता चाणक्य के सम्बन्ध में एक । प्रसंग इस प्रकार आता है :
चाणक्य ने अनेक बार चन्द्रगुप्त के प्राणों की रक्षा की। भारतीय इतिहास का वह ऐसा समय था जब राजशासन द्वारा किन्हीं-किन्हीं अत्यन्त रूपवती कन्याओं का लालन-पालन इसप्रकार किया जाता कि उनके आहार-पान में धीरे-धीरे विष का संचार होता रहे, और वे विष का प्रभाव इस सीमा तक ग्रहण करती चली जायें कि स्वयं दोष से मुक्त रहें, किन्तु जो व्यक्ति उनके संसर्ग में आये उस पर विष का प्रभाव छा जाये नन्द राजा के मन्त्री ने षड्यन्त्र किया कि इस प्रकार की एक विषकन्या को विजय-अभियान से लौटते हुए चन्द्रगुप्त के रथ के आगे भेज दें। किन्तु विष कन्या उब चन्द्रगुप्त के रथ के सामने आयी तो चाणक्य ने उसे चन्द्रगुप्त के रथ पर बैठने से रोक दिया और चन्द्रगुप्त के साथी राजा पर्वतक को आज्ञा दी कि इस रूपवती तरुणी को वह स्वीकार करे। राजा पर्वतक चन्द्रगुप्त के आक्रमणों का सहयोगी था, इसलिए उसे आधे राज्य का स्वामी होना था। पर्वतक ने ज्यों ही अदम्य-आवेग में विषकन्या का हाथ पकड़ा, विषकन्या के पसीजे हए हाथ का पसीना उसे लग गया जिससे पर्वतक पर तत्काल विष का प्रभाव पड़ने लगा। धीरे-धीरे उसका कण्ठ सूखने लगा। उसने चन्द्रगुप्त को सहायता के लिए पुकारा । चन्द्रगुप्त ने विष दूर करने वाले वैद्यों को तत्काल बुलाना चाहा किन्तु विष का प्रभाव इस सीमा तक बढ़ गया था कि कोई भी उपचार नहीं किया जा सका। इतिहासकारों ने चाणक्य के इस व्यवहार का यह अर्थ लगाया कि चन्द्रगुप्त की प्राणरक्षा के लिए यह आवश्यक था कि विषकन्या पर्वतक के पास जाये, क्योंकि राजनीति के नियम के अनुसार जब दो राजा आधे-आधे राज्य के अधिकारी होते हैं तो एक न एक दिन आपस में उनमें युद्ध ठनता ही है।