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चन्द्रगुप्त मौर्य का उदय
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बी। दो-तीन वर्ष की तैयारी के बाद चन्द्रगुप्त की सेना ने सीधे मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। किन्तु नन्दों की विशाल सेना और अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति से होड़ नहीं ली जा सकी। पराजित होकर, प्राण बचाकर, चाणक्य और चन्द्रगुप्त भाग निकले । चाणक्य दुःखी हुए। युद्ध-नीति में कहां क्या त्रुटि रह गयी?
घूमते-घूमते चाणक्य एक दिन किसी वन-प्रान्तर के गांव में पहुंचे। एक झोंपड़ी के बाहर खड़े हो गये । देखा, एक मां अपने बेटे को भोजन करा रही थी। बेटे ने भोजन की थाली में परोसी गयी खिचड़ी के बीचों-बीच हाथ डाल दिया था। हाय जल गया था ! बुढ़िया कह रही थी-"कैसा मूर्ख है तू, चाणक्य की तरह । उसने सीमा के राज्यों को धीरे-धीरे जीतने के बजाय सीधे पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया और हार गया। तू खिचड़ी को किनारे-किनारे से खा। तब थाली के बीच तक पहुँच जायेगा और हाथ भी नहीं जलेगा।"
यह वार्तालाप सुनकर चाणक्य की आंखें खुल गई। अब उसने चन्द्रगुप्त के लिए पुनः सेना संगठित की। सेना का संचालन इस प्रकार किया कि धीरे-धीरे सीमावर्ती राज्यों को चन्द्रगुप्त जीतता चला गया और अन्त में पाटलिपुत्र पर घेरा डाल दिया । चार वर्ष के युद्ध के उपरान्त राजा महापद्मनन्द ने धर्मद्वार पर भाकर आत्म-समर्पण कर दिया। चाणक्य ने उसे प्राणों की भिक्षा दी , धन-परिवार लेकर महापद्मनन्द प्रवास में चला गया।
ई०पू० 317 में चन्द्रगुप्त के मौर्यसाम्राज्य की स्थापना हुई। और, नन्दवंश के नाश के उपरान्त चाणक्य ने अपनी चोटी की गाँठ बांधी। अब चन्द्रगुप्त सम्राट् थे और चाणक्य अमात्य-गुरु। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के अमात्य के रूप में राष्ट्र की जो अपूर्व सेवाएँ कीं, वे चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार को भी उपलब्ध रहीं। किन्तु बिन्दुसार को चाणक्य का प्रभाव सहन नहीं हुआ। यहाँ चाणक्य का मन भी राजकाज से विरक्त हो गया था अतः सत्तर वर्ष की अवस्था पार करते ही चाणक्य ने निर्ग्रन्थ मुनि-दीक्षा ले ली।
हरिषेण-कथाकोश में उल्लेख है कि एक बार जब मुनि मणक्य पव सौ शिष्यों सहित क्रौंचपुर के वन में ध्यान-मग्न थे, तब वहाँ के राजा सुमित्र वन्दना को पहुँचे। चाणक्य के प्रति राजा का यह भक्तिभाव देखकर राजा का अमात्य सुबन्धु द्वेष से भर गया। एक बार जब मुनि चाणक्य उपलों के ढेर पर बैठे निविकार भाव से ध्यान कर रहे थे तो सुबन्धु ने कुचक्र द्वारा उपलों में आग लगवा दी, यद्यपि दिखाने के लिए वह पहुंचा था मुनि-वन्दना के लिए। चाणक्य समाधि में स्थिर रहे और उन्होंने उसी अवस्था में शान्तचित्त से शरीर त्याग किया। कहते हैं, क्रौंचपुरी के दक्षिण में आज भी चाणक्य की समाधि पूजी जाती है। ___ कन्नड़ कृति 'वड्ढाराधने' में भी चाणक्य के कृतित्व का उल्लेख सम्राट चन्द्रगुप्त और आचार्य भद्रबाहु की कथा के प्रसंग में आया है। चाणक्य की प्रतिभा