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- अन्तर्द्वन्द्वों के पार
(व) सं नोन्तु समाधियं साधिसिवं।" . .
अर्थात् उसने जैनधर्म का प्रतिपालन किया, अनेक जिनमन्दिर और मानस्तम्भ बनवाये, इन सब धार्मिक कार्यों को करने के उपरान्त एक वर्ष बाद राज्य-त्याग किया। तीन दिन की व्रत-साधना के उपरान्त बंकापुर में अजितसेन भट्टारक के श्रीचरणों के समीप समाधि-साधना की। ऐसे प्रतापी नरेश की जिन उपाधियों की छटा इस शिलालेख में है, वे इस वीर के अनुकूल ही हैं—गंगचूड़ामणि, गंगवज्र, नोलम्बान्तक, गुत्तिय-गंग, मण्डलिकत्रिनेत्र, गंगविद्याधर, गंगकन्दर्प, गंगसिंह,
सत्यवाक्य, कोंकणवर्म-धर्म-महाराजाधिराज आदि । पुराविद् : इस शिलालेख से और इतिहास के अनेक संदर्भो से यह स्पष्ट है कि
गंगवंश और राष्ट्रकूट वंशों में मैत्री थी, और इस मैत्री का आधार प्रमुख रूप से जैनधर्म था। चोल-नरेश शव थे, अतः उनकी पक्षधरता
जैनेतर धर्म के प्रति अधिक रही। अनुगा : अनेक शिलालेखों में जैनाचार्यों के सम्बन्ध में ऐसा वर्णन आता है कि
वे शास्त्रार्थ में धुरन्धर थे, प्रतिवादियों को उन्होंने बारबार हराया।
यह बात क्या मुख्य रूप से ठीक है ? वाग्मी : हाँ, अनेक शिलालेख यहां मैंने पढ़े हैं। और, आचार्यों के जीवन
वृतान्त में, प्रशस्तियों में इस प्रकार की अनेक घटनाएँ हैं। श्रुतज्ञ : शिलालेख क्रमांक 70 में उल्लेख है कि बारहवीं शताब्दी में महा
मण्डलाचार्य देवकीति पण्डित ने चार्वाक्, बौद्ध, नैयायिक, कापालिक
और वैशेषिकों को शास्त्रार्थ में हराया। वाग्मी : यह लेख पढ़ने-सुनने योग्य है । सुनिए,
"जितवृजिनजिनपतिमतपयर्पयोधिलीलासुधा कररु। चार्वाकाखर्चगर्वदुर्वारोर्वीधरोत्पाटनपटिष्ठनिष्ठुरोपालम्भदमोलिदण्डर अकुण्ठकण्ठ-कण्ठीरव-गंभीर-भूरि-भीम-ध्वान-निईलितदुईमेद्धबौद्धमदवेदण्डरु। अप्रतिहत-प्रसरदसम-लसदुपन्यसननित्यनैसित्व-पान-दानदलितनैयायिकनयनिकरलरु । चपलकपिलविपुलविपिनदहन-दावानलरु । शुम्भदम्भोद-नाद-नोदितविततवैशेषिकप्रकरमदमरालरु । शरदमलशशधर-करनिकर-नीहारहाराकारानुवति-कीर्तिवल्लीवेल्लिलतदिगन्तरालरुमप्पश्रीमन्महामण्डलाचार्यरु श्रीमद्देवकोतिपण्डितदेवरु ।
कुनमः कपिल-वादि-वनोग्र-वह नये चार्वाक्-वादि-मकराकर-वाडवाग्नये ।