________________
बाहुबली-मूर्तियों की परम्परा
वीर-मार्तण्ड चामुण्डराय ने भगवान् बाहुबली की विश्व-वन्द्य मूर्ति की प्रतिष्ठपना करके जिस विशालता, भव्यता और वीतरागता को अलौकिक कला में रूपान्तरित किया, उसने आगे की शताब्दियों के श्रीमन्तों और कलावन्तों को इतना अधिक प्रभावित किया कि बाहुबली की विशाल मूर्ति का नव-निर्माण उनके जीवन की साध बन गयी । बाहुबली यद्यपि तीर्थंकर नहीं थे, किन्तु उपासकों ने उन्हें तीर्थंकर के समकक्ष पद दिया। ऐसा ही अनुपम रहा है उनका कृतित्व जिसे हम पिछले अध्यायों में देख चुके हैं। कर्नाटक में जन-सामान्य के लिए तो वह मात्र देवता हैं-तीर्थंकर, जिन, कामदेव के नामों और उपाधियों से परे।)
। दक्षिण कर्नाटक में, मूडबिद्रि से उत्तर में 15 कि० मी० की दूरी पर स्थित कारकल में सन् 1432 में लगभग 41-1/2 फुट ऊंची प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई जिसे राजपुरुष वीरपांड्य ने जैनाचार्य ललितकीर्ति की प्रेरणा से निर्मित कराया।
2. एक मूर्ति मूडबिद्री से लगभग 12 मील दूर वेणूर में चामुण्डवंशीय तिम्मराज ने सन् 1604 में स्थापित की, जिसकी ऊंचाई 35 फुट है। इसके प्रेरणास्रोत भी चारुकीर्ति पण्डित माने जाते हैं।
3. कुछ वर्ष पहले मैसूर के पास वाले एक घने उजाड़ स्थान के ऊँचे टीले का उत्खनन करने पर बाहुबली की 18 फुट ऊंची मूर्ति प्राप्त हुई थी। अब उस स्थान को 'गोम्मटगिरि' कहा जाता है।
4 कर्नाटक के बीजापुर जिले के बादामि पर्वत-शिखर के उत्तरी ढाल पर जो चार शैलोत्कीर्ण जैन गुहा-मन्दिर हैं उनमें से चौथे गुहा-मन्दिर के मण्डप में कोने के एक देव-प्रकोष्ठ में विभिन्न तीर्थंकर-मूर्तियों के मध्य उत्कीर्ण मूर्ति सर्वप्रभु बाहुबलि की मूर्ति है। इस 7 फुट 6 इंच ऊँची मूति की केश-सज्जा भी दर्शनीय है जिसकी परम्परा दसवीं शती में श्रवणबेल्गोल की महामूर्ति में ऊर्णा अर्थात् धुंघराले केशों के रूप में परिणत हुई।
बादामि-बाहुबली की केश-सज्जा की परम्परा आठवीं-नौवीं शती की उस मूर्ति में विद्यमान है जो बाहुबली की प्रथम कांस्य-मूर्ति है। लगभग डेढ़ फुट ऊँचे