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श्रवणबेल्गोल में बाहुबली की मूर्ति-प्रतिष्ठापना
सोलहवीं सदी का एक दूसरा शिलालेख क्रमांक 516 दर्शनार्थी की भावविभोर स्थिति का वर्णन इस रूप में करता है
आदि तीर्थद कोलविदु, हालगोलनो, इतु अमृतगोलनो, इबु गंगे नदियो, तुंगभद्रेओ, इदु मंगलगोरियो, इद् मंदावनो, इदु शृंगारतोटमो अयि, अयि या अयि, अयिये
वले, तीर्थ बले तीर्थ जया जया जया जया॥ अर्थात् यह क्या कोई पावन सरोवर है, दूध से भरा कुण्ड है, या परिपूर्ण अमृतकुण्ड है ? क्या यह गंगा है ? तुंगभद्र है ? मंगलागोरी है ? इसे वृन्दावन कहें या श्रृंगार विहार ? सदा सर्वदा जय हो इसकी, चिर जयवन्त हो तुम ! अभिषेक की अन्तःकथा __ मूर्ति-निर्माण के उपरान्त स्वभावतः चामुण्डराय के मन में मूर्ति के अभिषेक को भावना जागी। ऊँचा मचान बनवाया। दूध के सहस्रों कलश मंगवाये गये। चामुण्डराय का प्रभाव, अधिकार और साधन असीम थे । एक बुढ़िया जो प्रति दिन मूर्ति का निर्माण देखती थी और गोम्मटेश्वर को नमस्कार करती रहती थी, उसके मन में भी इच्छा जागी कि वह भी भगवान के अभिषेक का पुण्य प्राप्त करे। फल की एक छोटी कटोरी (गुल्लिका) में इस बुढ़िया माई (अज्जी) ने दूध भरा और चल पड़ी अपनी मनोकामना पूरी करने । मूर्ति के पास पहुंच तो नहीं पाई पर उसने लोगों से बहुत अनुनय-विनय की कि थोड़ा-सा ही तो दूध है, जल्दी से चढ़ा देगी। लेकिन किसी ने उसकी बात न सुनी। वह कई दिन इसी तरह आती और निराश लौट जाती। ___ अभिषेक के लिए चामुण्डराग पहाड़ी की चोटी पर पहुँचे और दूध के कलशों से अभिषेक करना प्रारम्भ किया। जय-जय की व्वनि के बीच वे कलश पर कलश भगवान बाहुबली की मूर्ति पर ढालने लगे। न जाने कितने कितने कलश मूर्ति पर ढाले गये, किन्तु सारा दूध मूर्ति की नाभि तक ही पहुँच पाया। नीचे तक पांव का प्रक्षालन नहीं हो पाया। प्रयत्न करके जब चामुण्डराय अधीर हो गये, तो उन्होंने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से परामर्श माँगा। गुरु ने कहा-"देखो, यहाँ यह क्षीणग्य बुढ़िया प्रकट हुई है। उसके हाथ में दूध से भरी हुई छोटी-सी एक कलशी है (जो वास्तव में श्वेत गुल्लकेय फल का खोखला भाग है)। उसे भी अभिषेक करने दो।"
भला, क्या तो वह पात्र और कितना सा वह दूध ! किन्तु जब बुढ़िया की ओर से अभिषेक प्रारम्भ हुआ तो दूध मूर्ति के सारे शरीर को प्रक्षालता हाअ