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दिगम्बरत्व की विराटता के बिम्ब बाहुबली
57 . • बाहुबली जनता के मन में शौर्य और तपस्या की संतुलित मूर्ति के रूप में
प्रतिष्ठित हैं। राजाओं के लिए वे धीर-गम्भीर-वीरत्व के आदर्श हैं। साधुओं के लिए उनकी अदम्य कायोत्सर्ग मुद्रा अनुकरणीय है। शिल्पियों के लिए उनकी विशालता, उनका औदार्य और उनकी आध्यात्मिक दिव्यता हृदय में उतारने की वस्तु है। कोमल माधवी लताओं या पिप्पलीलतिकाओं द्वारा शरीर का आच्छादन, कुक्कुट सर्पो की बाँबियाँ और वन के समस्त प्राणियों का आसपास निर्भय संचरण-सब कुछ, जो कला के लिए वांछनीय है, बाहुबली-मूर्ति की कल्पना में समाहित है। साहित्यकारों के लिए इससे अधिक मनोरम कथानक, इससे बड़ा रोमांच, ,:नाटकीय तत्त्वों का इतना गहन समावेश, भावनाओं का घात-प्रतिघात और रसों का परिपाक अन्यत्र कहाँ मिलेगा? बाहुबली संसार के उन आदिपुरुषों में हैं जिन्होंने आत्मगौरव के लिए, अपनी भूमि की स्वतन्त्रता के लिए, संग्राम किया और युग-युगान्तर के लिए
स्वाधीनता के महत्त्व को स्थापित किया। • बाहुबली प्रतीक हैं आध्यात्मिकता के उन बहुरंगी रूपों के, जो स्थूल के
माध्यम से सूक्ष्म की ओर, गोचर से अगोचर की ओर, और इन्द्रियों के संयम से इन्द्रियातीत आत्मा के दर्शन की ओर अग्रसर होते हैं। )
दिगम्बरत्व की इतनी बड़ी साहसिक कल्पना इन्हीं भगवान बाहुबली के चरित्र के माध्यम से जन-जन में प्रतिष्ठित हो पाई । और, बाहुबली की ऐसी विशाल दिगम्बर मूर्ति का निर्माण करना दसवीं शताब्दी के प्रतापी महापुरुष सेनापति और अमात्य चामुण्डराय के लिए सम्भव हुआ, जिसे जैन तथा जैनेतर जनता में, जनजन में आदर-सम्मान प्राप्त था।