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प्राचार्य भद्रबाहु का धर्मचक्र
. और दिगम्बरत्व की विराटता के बिम्ब बाहुबली
श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु मुनि-धर्म और श्रावक-धर्म की श्रेष्ठ सांस्कृतिक परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए कृतसंकल्प थे। उन्हें पता था कि मुनिधर्म के अनुरूप संयम का आचरण वे साधु नहीं कर पायेंगे जो दुभिक्ष-ग्रस्त क्षेत्र में रहेंगे । आचार्य भद्रबाहु महामात्य चाणक्य की बुद्धि का चमत्कार, उनका नीतिकौशल और उनके द्वारा चन्द्रगुप्त के विशाल साम्राज्य की यशस्वी स्थापना देख चके थे। उस राजनीति का सफल नायक सम्राट चन्द्रगुप्त अब उनका साक्षात् शिष्य था। आचार्य को यह अवसर अनुकूल लगा कि मानव-कल्याणकारी जिनधर्म के अहिंसा और विश्वमंत्री के सिद्धान्तों के आधार पर धर्म-साम्राज्य विस्तृत हो। . आचार्य भद्रबाहु ने संघ-सहित दक्षिणापथ की ओर प्रस्थान करने का निर्णय ले लिया था। ____ आचार्य भद्रबाहु ने जब यह संकल्प किया तब कितनी अदम्य साहसिक दृढ़ता रही होगी उनके मन में ! साम्राज्य-त्यागी सम्राट चन्द्रगुप्त साथ थे, यह तथ्य अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है किन्तु इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि आचार्य भद्रबाहु के संघ में बारह हजार साधु थे। कितना बड़ा संघ! कितनी लम्बी यात्रा : कितने नगर, ग्राम, जनपद, पहाड़ और घने जंगल ! इतने बड़े संघ के साधुओं के आहार-विहार की क्या व्यवस्था रही होगी, यह सोच पाना कठिन है । किन्तु जो आचार्य अपने शिष्यों को इसलिए दक्षिण की ओर ले चले कि उनका संयम और आचरण स्थिर रहे, उनका पूरा प्रयत्न यही रहा होगा कि यात्राकाल में सारे संघ का आचार-विचार शुद्ध रहे। कितने दिन संघ निराहार रहा होगा! कैसे धीरे-धीरे संघ की यात्रा आगे बढ़ी होगी ! किन्तु, किसी भी भय की कल्पना करना शायद उचित नहीं है, क्योंकि धर्मप्रधान भारतवर्ष की जनता साधुत्व और त्याग को समझती आयी है, और इसीलिए त्यागी-विरागी साधुओं के प्रति उसके हृदय में सदा सहज विनम्रता जगती रही है। आचार्य भद्रबाहु के संचालन में इतना बड़ा