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भरत चक्रवर्ती का साम्राज्य - विस्तार
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"भरत, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसी तथ्य में है कि बाहुबली पाँव के दो तलवों भर पृथ्वी पर खड़े हैं। बाहुबली को केवलज्ञान इसीलिए नहीं होता कि उनके मन में एक काँटा है, काँटे की-सी कसक है, एक शल्य है, कि जिस धरती पर उनके तलवे टिके हैं, वह धरती भी आखिर है तो भरत की ही। और यह धरती उस भरत की है जिसने इसके लिए युद्ध किया, जो चक्रवर्ती सम्राट् है । और, उस धरती पर वे खड़े हैं । बाहुबली की तपस्या के फूल को यह काँटा कुरेद रहा है, और यह भी कि वह तुम्हारे मन के संक्लेश का कारण बने । जाओ, संबोधन करो। "
भरत की आँखें भर आयीं । भगवान आदिनाथ को प्रणाम करने के उपरान्त भरत वापस आकर सीधे राजभवन में गये । अपनी बहिनों - ब्राह्मी और सुन्दरी को सब वार्ता बतायी । उन्हें साथ लेकर वह चल पड़े बीहड़ वन की ओर । पहुँचे ध्यानमग्न बाहुवली के चरणों तक । तपोवन का वातावरण देखकर मन्त्र मुग्ध हो गये । परम शान्ति और आह्लाद के अलौकिक परिवेश में करुणा और मंत्री की भावनाओं ने चर-अचर के प्राणों को स्पन्दित कर रखा था। हाथी और सिंह आत्मीय भाव से एक साथ बैठे हुए थे। जिस हथिनी ने अभी-अभी शिशु को जन्म दिया था, वह स्वयं तो एक भैंस के शिशु का मस्तक सूंघ कर उसे प्यार से अपना दूध पिला रही थी, और हथिनी के शिशु के मुख को एक सिंहनी छाती से चिपकाये स्तन पान कराने की चेष्टा कर रही थी। मेघों के गर्जन की लय पर मयूर नाच रहे थे और सर्पों की मण्डली कुण्डली मारे, कण उठाये झूम रही थी । बहिनों ने देखा कि सैकड़ों कुक्कट सर्प चरणों के पास बाँबियाँ बनाये शान्त भाव से बैठे हुए हैं । हरीभरी माधवी लताएँ, पिप्पली लतिकाएँ, अपनी समस्त कमनीयता के साथ घेरे हुए हैं दिगम्बर साधु के पावन चरणों को, जंघाओं को, भुजाओं को । बहिनों की पुलकाafe स्वयं ही लता-सा विस्तार पाती गयी। बड़े आदर से सुन्दरी और ब्राह्मी ने लताओं को हटाना शुरू किया। वे अपने शरीर पर उन्हें ओढ़ती चली गयीं । लेकिन भाई को तो स्पर्श का संवेदन ही नहीं ! भरत भी सोच में पड़ गये कि किस अतल साधना में लवलीन हैं बाहुबली ! भला भावना की ऐसी अलोकिक स्थिति में कोई शल्य कैसे प्रश्रय पायेगा ? कोई काँटा कैसे कसकेगा ? पर, भगवान आदिनाथ ने जो कहा है, वह सर्वज्ञ की वाणी है। शूल की कोई-न-कोई अनी, कभी-कभी अन्तमुहूर्त में कसक जाती होगी या सरसराती हवा की कोई हल्की-सी लहर गुंजा जाती होगी महामन्त्री का वह स्वर : "बाहुबली कहाँ जा रहे हो ? है कहीं ऐसी पृथ्वी जिस पर चक्रवर्ती भरत का अधिकार न हो ?”
भरत का सोच जितना गहराता, उनकी हथेली बाहुबली के दायें हाथ को उतनी ही द्रुतगति से सहलाती जातीं । अब भरत के आँसू बाहुबली के चरणों का अनवरत प्रक्षालन किये जा रहे थे। सहसा ही ध्यानस्थ योगी की काया में चेतना का एक मन्द कम्पन, रोमराजि में एक हल्का-सा स्फुरण, बरोनियों का एक शान्त