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सम्राट भरत : अनासक्त योगी
भरत की जीवन-यात्रा अनेक गहरे और अन्तर्वेधी अनुभवों के कुसुमित और कंटकित मार्गों से गुजर चुकी थी । अहंकार के अणु का विध्वंसकारी विस्फोट वह देख चुके थे, सह चुके थे। अब वह चक्रवर्ती के कर्तव्यों का अनासक्त भाव से पालन करने लगे। उन्होंने अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा के लिए ब्राह्मण वर्ण का निर्माण किया। यह चौथा वर्ण था। भगवान आदिनाथ शेष तीन वर्गों की स्थापना समाज-व्यवस्था की दृष्टि से पहले ही कर चुके थे। सारे रत्न, सारी सम्पदाएँ और सारे भोग अब बन्धन नहीं थे। मन अब राज्य-व्यवस्था के केवल मानव-कल्याणकारी पक्षों को स्वीकारता था। धर्म का मनन, आत्म-चिन्तन और समताभाव का दर्शन उनके जीवन और क्रिया-कलाप में जन-मन को अब प्रत्यक्ष दिखाई देता । 'भरत जी घर में ही वैरागी' की कीर्ति यथार्थ पर आश्रित थी।
पुराग की कथा है कि एक बार इन्द्र की सभा में चर्चा चल पड़ी कि भरत क्षेत्र में वहाँ के चक्रवर्ती सम्राट् भरत का यशोगान इसलिए हो रहा है कि गृहस्थ होते हुए भी वे अन्तरंग से साधु हैं। राज-काज करते हुए भी वे कल्मष और अशुभ भावों से दूर हैं। स्वर्ग के सुखों में रमण करने वाले देवों को यह कल्पना विचित्र लगी। उनमें से एक देव का कोतूहल इतना उग्र हो गया कि उसने मनुष्य-लोक में जाकर स्वयं भरत की परीक्षा लेना उचित समझा। एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में वह देव भरत महाराज के सामने आ उपस्थित हुआ। पूछा
"महाराज, आप चक्रवर्ती सम्राट् हैं, राज-काज चलाते हैं, आरम्भ और परिग्रह का इतना बड़ा संसार आपकी व्यवस्था में चल रहा है, आपका राज-प्रासाद भोगों और उपभोगों की सुविधा-सामग्री से भरपूर है। आप इन सबके बीच क्रियाशील हैं। फिर यह कैसे संभव है कि आप विरागी हों? क्षमा करें महाराज, इस असंभव बात को मानने का मेरा मन नहीं होता। धृष्टता न मानें, मैं इसका प्रमाण चाहता हूँ।"