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- अन्तर्द्वन्द्वों के पार
रचना की शिक्षा देकर ऋषभदेव ने मनुष्य के संस्कारों को उन्नत किया, संस्कृति की नींव डाली। व्याकरण के नियम, छन्द और काव्य रचने की विधि, गायन, नृत्य, नाट्य-शिल्प, ढोल आदि बाजे बजाने की कला, सेना-संचालन, व्यूह रचने की प्रक्रिया, नगर और भवन की रचना, नाप-तोल की विधि आदि 72 कलाएँ आदिनाथ ऋषभदेव ने अपने बड़े पुत्र भरत को सिखायीं। छोटे पुत्र बाहुबली को विशेष रूप से स्त्री-पुरुषों और पशु-पक्षियों के गुणों की पहचान, शुभ-अशुभ समय का ज्ञान, गणित और ज्योतिष की विद्या में निपुण किया। अपनी पुत्री ब्राह्मी के लिए लिपि का आविष्कार किया। कहते हैं, इसीलिए वह ब्राह्मी लिपि कहलायी। पुत्री सुन्दरी को अंक विद्या सिखायी, उसे स्त्रियों की 64 कलाओं में निपुण बनाया। तभी से यह सब ज्ञान, ये सब कलाएँ और ये सब शिल्प-विद्याएँ मानव-समाज को उत्तराधिकार में मिली हुई हैं। ____ असि (युद्ध), मसि (लेखन), कृषि (खेती), वाणिज्य (व्यापार), विद्या (शास्त्ररचना, नृत्य-गायन आदि) और शिल्प (हस्तकला, चित्रांकन आदि) आजीविका के लिए उपयोगी इन छह कर्मों की शिक्षा देने वाले; समाज, राज्य और संसार की व्यवस्था का रूप निर्धारित करने वाले ऋषभदेव, योगविद्या के भी आदि-प्रणेता थे। संयम, तप, त्याग एवं ध्यान की एकाग्रता से किस प्रकार अलीकिक शक्तियों का विकास होता है, मन की राग-द्वेष की प्रवृत्तियों से किस प्रकार 'कर्मों का बन्ध होता है और किस प्रकार संयम द्वारा, राग-द्वेष के त्याग द्वारा आत्मा कर्मबन्ध से मुक्त होकर मोक्ष का अविनश्वर सुख प्राप्त करती है, इस सबका उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया और जन्म-मरण के सागर को पार करने का 'तीर्थ' निर्माण किया । संसार की क्षण-भंगुरता की अनुभूति उन्हें किस प्रकार वैराग्य के पथ पर ले गयी थी, यह घटना अत्यन्त बोध-कारक है। ___एक दिन इन्द्र द्वारा लायी गई स्वर्ग की एक अप्रतिम रूपसी अप्सरा नीलांजना, महाराज ऋषभदेव की सभा में नृत्यकला का प्रदर्शन कर रही थी। संगीत के आरोहअवरोह पर, नूपुरों की मधुर ध्वनि के साथ मनोहारी लयों पर थिरकते पग; भावों के अनुसार मंगिमाओं का मनमोहक प्रदर्शन, नृत्य की लुभावनी मुद्राओं पर मंत्रमुग्ध होकर सारी सभा रूप, रस और कला की लहरियों पर तैर रही थी कि अचानक कुछ ऐसा घटा कि नीलांजना की नृत्यमग्न काया, छाया की तरह विलीन हो गयी। नृत्य की चमत्कारी मंगिमा और स्वरों की तेज लहरियों पर थिरकती नृत्यांगना नृत्य की गति में एकाकार हो गई है। दर्शक यह नहीं सोच पाये कि तरंगों की द्रुतता में नीलांजना नहीं है । केवल ऋषभदेव यह जान गये कि नृत्यसभा को अभंग रखने के लिए इन्द्र ने नीलांजना की एक दूसरी प्रतिच्छवि नृत्यभंगिमा के उस सहस्रांश क्षण के पदचाप पर लाकर खड़ी कर दी है जहां से वह पहली अप्सरामूर्ति विलीन हुई थी। राजा ऋषभ ने सोचा, "बस यही है शरीर का धर्म? यही है