________________ जीव में आठों कर्मों में से किसी एक कर्म की सत्ता नहीं थी, पीछे से वह कर्म स्पृष्ट तथा बद्ध हुआ हो। तो कहना पड़ेगा कि आठों कर्मों की सत्ता अनादि से विद्यमान है। कर्म सादि भी है, क्योंकि किसी विवक्षित समय का बन्धा हुआ कर्म अपनी-अपनी स्थिति के मुताबिक आत्मप्रदेशों में ठहर कर और अपना फल देकर आत्मप्रदेशों से झड़ जाता है, परन्तु बीच-बीच में अन्य कर्मों का बन्ध भी चालू ही रहता है। वह बन्ध नहीं रुकता जब तक कि गुणस्थानों का आरोहण नहीं होता अर्थात् जब तक जीव आत्मविकास की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक कर्म-प्रकृतियों का बन्ध चालू ही रहता है, रुकता नहीं। तीन कार्य समय-समय में होते ही रहते हैं जैसे कि कर्मों का बन्ध, पूर्वकृत कर्मों का भोग और भुक्त कर्मों की निर्जरा। अनेकान्त दृष्टि से कर्मविचार-प्रश्न-क्या कर्म आत्मा से भिन्न है ? या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो उस का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि अभिन्न है तो कर्म ही आत्मा का अपर नाम है, जीव और ब्रह्म की तरह ? उत्तर-अनेकान्तवादी इसका उत्तर एक ही वाक्य में देता है, जैसे कि आत्मा से कर्म कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं, अथवा भेदविशिष्ट अभेद या अभेदविशिष्ट भेद ऐसा भी कह सकते हैं। इस सूक्ष्म थ्योरी को समझने के लिए पहले स्थूल उदाहरण की आवश्यकता है। हम ने स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है। सूक्ष्म से अमूर्त की ओर जाना है, अत: पहले स्थूल उदाहरण के द्वारा इस विषय को समझिए। जैसे हमारा यह स्थूल शरीर भी आत्मा से कथंचित भिन्नाभिन्न है। यदि स्थूल शरीर को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानेंगे तो भिन्न शरीर जीव-परित्यक्त कलेवर की तरह सुख-दुःख आदि नहीं वेद सकता, यदि स्थूल शरीर को सर्वथा अभिन्न माना जाए तो किसी की मृत्यु नहीं होनी चाहिए, अर्थात् शरीर का तीन काल में भी वियोग नहीं होना चाहिए। जैसे द्रव्य से द्रव्यत्व भिन्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि द्रव्य से द्रव्यत्व अभिन्न है। अतः स्याद्वादी का कहना है कि सजीव स्थूल शरीर आत्मा से कथंचित् भिन्नाभिन्न है। उपरोक्त दोषापत्ति सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानने में है। . अब इसी विषय को दूसरी शैली से समझिए-निश्चय नय की दृष्टि से कर्म आत्मा से भिन्न है, क्योंकि आत्मा के गुण आत्मा में ही अवस्थित हैं, कर्मों के गुण कर्मों में स्थित हैं, परस्पर गुणों का आदानप्रदान नहीं होता। कर्मों की पर्याय कर्मों में परिवर्तित होती है, और आत्मा की पर्याय आत्मा में, इस दृष्टि से आत्मा और कर्म भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा और कर्म में अभेद है। जब तक दोनों में अभेदभाव न माना जाए तब तक जन्म, जरा, मरण तथा दुःख आदि अवस्थाएं नहीं बन सकतीं। अभेद दो प्रकार का होता हैकममीमांसा] . श्री विपाक सूत्रम् [21