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तीर्थकर पार्श्वनाथ युग में (१) सचेल-अचेल मुक्तिवाद (२) आत्मवाद और अभेदवाद (३) सुविधा भोगी साधुत्व एवं स्थविरवाद तथा (४) चातुर्यामवाद से संबंधित उपदेशों की प्रमुखता पाई जाती है। प्राचीन ग्रन्थों में “स्त्री मुक्तिवाद” एवं "केवली कवलाहारवाद” की चर्चा नहीं है। इनके चातुर्याम - पंचयाम, सचेल-अचेल मुक्तिवाद तथा सामायिक चरित्र आदि अनेक प्रकरणों में व्यवहार-निश्चय दृष्टि का भी आभास होता है। क्या कुन्दकुन्द की वरीयता प्राप्त निश्चय दृष्टि का आधार ये ही उल्लेख हैं? केशी को गौतम की यह बात अच्छी लगी कि तत्व एवं चरित्र की परीक्षा प्रज्ञा, बुद्धि एवं विज्ञान से करनी चाहिये। इस वैज्ञानिकता की दृष्टि ने ही महावीर को पार्श्व के चिन्तन को विकसित एवं अभिवर्द्धित करने की प्रेरणां दी।. फिर भी, उपरोक्त आचारों के कारण पार्श्व संघ में विकृति आयी होगी जिससे महावीर के युग में, पार्श्वस्थ शब्द को शिथिलाचार का प्रतीक माना जाने लगा। संभवत: यह मान्यता पार्श्व को हीन दिखाने की एक कुटनीति का अंग रही हो। यह माना जाता है कि जहां छेदोपस्थापना चरित्र, कालद्रव्यवाद, विभज्यवाद आदि के उपदेश महावीर की उदारता प्रदर्शित करते हैं, वहीं पंचयाम एवं अचेल मुक्तिवाद, दैनिक प्रतिक्रमण, समिति - गुप्तिपालन पर बल आदि के प्रचण्ड निवृत्तिमार्गी उपदेश- उनकी व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन की कठोरता के प्रतीक माने जाते हैं। इस कठोरता को अनेक पूर्वी और पाश्चात्य विचारकों ने जैन तंत्र के सार्वत्रिक न हो पाने का एक प्रमुख कारण माना है। महावीर के युग की तीर्थंकर चौबीसी की मान्यता तथा पूर्वो के साथ अंगोपांगों का शास्त्रीय विस्तार भी इस प्रक्रिया में बाधक रहा है। अनेकान्तवादी मान्यता में जैन तंत्र को सर्वोत्तम सिद्ध ही कैसे किया जा सकता है?१६ इन कारणों से ऐसा लगता है कि पार्श्व के सिद्धान्त संभवत: जैन तंत्र को अधिक सार्वत्रिक बना सकते थे। यही कारण है कि अब कुछ विद्वान् निर्ग्रन्थ धर्म (पार्श्व धर्म) की चर्चा करने लगे हैं। पर इससे महावीर का महत्व कम नहीं होगा क्योंकि उन्हें पाश्चात्यों ने भी विश्व के एक सौ महान पुरुषों में माना है। बस हमें, केशी गौतम संवाद के दो वाक्य याद रखने चाहिये -