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.. तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रधानता अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इतना ही नहीं अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए विभिन्न यज्ञों को प्रमुखता दी जाती थी। अश्वमेध यज्ञ भी काशी में सम्पन्न हुआ था। जिसकी स्मृति-शेष के रूप में अश्वमेध घाट आज भी विद्यमान है। अभिप्राय यह है कि “वेदिकीहिंसा हिंसा न भवति" इसका जनमानस पर पर्याप्त प्रभाव था और इहलौकिक और पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उक्त उद्घोष को चरितार्थ किया जाता था। ऐसे समय में तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने श्रमण परम्परा के अनुसार अहिंसामूलक धर्म का प्रचार-प्रसार किया और जन सामान्य को सद्धर्म के मार्ग पर लगाया।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ के काल को संक्रमण काल कहा जा सकता है क्योंकि वह समय ब्राह्मण युग के अन्त और औपनिषद या वेदान्त युग के आरम्भ का समय था।१५ जहां उस समय शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ का प्रणयन हुआ वहां वृहदारण्यकोषनिष्द के दृष्टा उपनिषदों की रचना का सूत्रपात्र हुआ था। ऐसे समय में पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन किया। वह चातुर्याम धर्म (१) सर्वप्रकार के हिंसा का त्याग, (२) सर्वप्रकार के असत्य का त्याग, (३) सर्वप्रकार के अदत्तादान का त्याग, (४) सर्वप्रकार के परिगृह का त्याग। इन चार यांमों का उद्गम वेदों या उपनिषदों से नहीं हुआ, किन्तु वेदों के पूर्व से ही इस देश में रहने वाले तपस्वी, ऋषि-मनियों के तपोधर्म से इनका उद्गम हुआ है ।१६ . ,
पार्श्वनाथ और नाग जाति ____ कुमार पार्श्व द्वारा नागयुगल की रक्षा संबंधी घटना को पुरातत्वज्ञ और इतिहासज्ञ पौराणिक रूपक के रूप में स्वीकार करते हुए यह निष्कर्ष निकालते हैं कि पार्श्वनाथ के वंश का नागजाति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध था। चूंकि पार्श्वनाथ ने नागों को विपत्ति से बचाया था, अत: नागों ने उनके उत्सर्ग का निवारण किया।
महाभारत के आदि पर्व में जो नागयज्ञ की कथा है उससे यह सूचना मिलती है कि वैदिक आर्य नागों के बैरी थे। नाग-जाति असुरों की ही एक शाखा थी और असुर जाति की रीढ़ की हड्डी के समान थी। उसके पतन