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___ तीर्थंकर पार्श्वनाथ बनारसीदास जी ने इस पद्य मैं भगवान् पार्श्वनाथ के इन गुणों का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है
जिन्ह के वचन उर धारत जुगल नाग, भये धरनिंद पदमावति पलक मे । जाके नाम महिमासों कुधातु कनक करै, पारस परवान नामी भयो है खलक में ।। जिन की जनमपुरी नाम के प्रभाव हम, अपनो स्वरूप लख्यो भान सो झलक में। तेई प्रभु पारसं महारस के दाता अब, दीजे मोहि साता दंगलीला की ललक में ।।
अर्थात जिनका उपदेश हृदय में धारण करने से नागदम्पति पल भर में धरणेन्द्र-पद्मावती हो गये, जिसके नाम की महिमा से कुधातु (लोहा) भी स्वर्ण हो जाती है, जो पारस पत्थर (पार्श्व मणि) के नाम से संसार में प्रसिद्ध है. जिनकी जन्म नगरी बनारस के नाम के प्रभाव से हम भी (बनारसीदास) अपने सही स्वरूप को देखने में समर्थ हो सके हैं और वह स्वरूप सूर्य की झलक के समान प्रकाशवान है। वे ही पार्श्व प्रभु महारस (आत्मानन्द) के दाता! अब मुझे भी साता (आत्म शान्ति) दें। मैं प्रभु के दर्शन की ललक में हूँ।
इस विषय में उनके प्रभाव को बनारसीदास जी ने स्वयं स्वीकार किया है। बनारसीदास जी के पिता का नाम खड़गसेन था। जब बालक छह-सात महीने का हुआ, खड़गसेन जी सकुटुम्ब श्री पार्श्वनाथ की यात्रा करने काशी गये। बड़े भक्ति भाव से पूजन किया और बालक को भगवच्चरणों में रख दिया - उसके दीर्घायु होने की प्रार्थना की
"चिरजीवि कीजै यह बाल, तुम्ह सरनागत के रखपाल। इस बालक पर कीजै दया, अब यहु दास तुम्हारा भया।।"
इस विनीत प्रार्थना के समय मन्दिर का पुजारी भी खड़ा था। थोड़ी देर बनावटी ध्यान लगाकर बोल उठा - भगवान् पार्श्वनाथ के यक्ष ने मुझे