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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
'महोत्सवनगर के नाम से प्रसिद्ध एक समृद्ध और सम्पन्न व्यापारिक स्थल था।
(२३)बिना फणावली के पार्श्व प्रभु - यह बड़ी अद्भुत प्रतिमा कायोत्सर्ग
मुद्रा में अवस्थित है। इसकी महत्ता इससे ज्ञात होती है कि इस पर फणावली नहीं है, नासाग्र दृष्टि है तथा चौकी पर उत्कीर्णित कमल पर खड़े हैं, बायें-दायें ओर उपासक और उपासिका अंकित हैं, तथा दोनों ओर चंवरधारी अंकित हैं। सर्प को पार्श्व के पैरों से पीछे की ओर उकेरा गया है। कुण्डलियाँ दोनों तरफ स्पष्ट दिखाई देती हैं । आश्चर्य है कि फणावली क्यों नहीं बनाई मई? एक और विशेषता है कि हाथ : की थोड़ी सी थपकी देते ही यह प्रतिमा झंकृत हो उठती है। इसका आकार ७८.३ ग २७ से.मी. है। लखनऊ म्यूजियम में अवस्थित है। प्रतिमा निर्माता प्रतिमा के लिए बड़े परिश्रम से उन पत्थरों को चुनते जिन पत्थरों में चिकनापन हो, सुगंधित हो, सुस्वर और कठोर हो। दक्षिण के मीनाक्षी मन्दिर के पत्थरों में भी ऐसी ही ध्वनि निकलती है। इस तरह उपर्युक्त दो तीन कारणों से ही यह प्रतिमा महनीय और दृष्टव्य है। यह महोबा हमीरपुर से लाकर लखनऊ म्यूजियम में
सुरक्षित रखी गयी है। (२४)चतुर्भुजी धरणेन्द्र और पद्मावती वाले पार्श्व प्रभु - शौरीपुर वटेश्वर
(आगरा)से प्राप्त कायोत्सर्ग मुद्रा में भूरे रंग की प्रतिमा अति विचित्र है। इसका आकार ६४ ग ३३ से.मी. है, चरण चौकी के दोनों ओर दो खम्भों का मंदिर सा बना है जहां सप्त फणों के छत्र के नीचे चौभुजी पद्मावती बैठी है। इसके ऊपर आधा इन्च चौड़ी पट्टी है जिस पर प्रभु पार्श्व की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है। इसके फण और मुंह टूटा हुआ है, ऊपर त्रिछत्र के नीचे उपासक और उपासिका तथा चंवर धारी अंकित हैं। आगे बायीं ओर सर्पफणों के नीचे चतुर्भजी धरणेन्द्र और पद्ममावती उकेरे गये हैं। इसके ऊपर ईहा मृग अंकित है। दो-दो बार यक्षयक्षियों का निर्माण किस हेतु किया गया है पता नहीं चलता।