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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
उक्त तथ्यों से प्रतीत होता है कि देवदारु' एवं 'धव' दोनों ही वृक्षों का भ. पार्श्वनाथ के जीवन से संबंध रहा हो सकता है क्योंकि हिमालय के तराई वाले एवं निचली श्रेणी के पर्वतीय भागों में देवदारु' एवं 'धव' दोनों . ही वृक्ष मिलते हैं । पुराणकारों ने भी भगवान् का बिहार अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशी, कोशल, अवन्ति, कुरू, पुण्ड, मालवा, पांचाल, विदर्भ, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्नाटक, कोंकण, कच्छ, कश्मीर, शाक, पल्लव, आमीर -आदि प्रदेशों में होना बताया है। उक्त प्रान्तों में से कुछ उत्तरी प्रान्तों में 'देवदारु' वृक्ष पैदा होते हैं। ‘धव' वृक्ष उक्त लगभग सभी प्रान्तों में उत्पन्न होते हैं। अत: वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार भी हजारों वर्ष पूर्व उत्तरी पर्वतीय भागों में देवदारु के वृक्ष बहुतायत से मिलते थे । सम्मेद शिखर पर्वत की ऊँचाई अधिक होने से वहां भी संभव है कि शायद देवदारु वृक्ष उस काल में वहां भी पैदा होते होंगे ।
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यदि वैज्ञानिक दृष्टि से अवलोकन किया जाये तो चौबीसों तीर्थंकरों के चैत्य वृक्षों का पर्यावरणीय महत्व है। यह सभी वृक्ष पारिस्थितिकी (Ecosystem) को संतुलित बनाये रखने में सहायक हैं। चूंकि यह सभी प्रकार के पर्यावरणीय शोक (प्रदूषण ) को हरने में सहायक होते हैं अत: इन्हें ‘अशोक' वृक्ष भी कहा है। "देवदारु” एवं “धव" दोनों ही ऐसे वृक्ष हैं जिनके नीचे की मिट्टी में अनेकों प्रकार के सूक्ष्म जीव क्रियाशील रहते हैं एवं बिना किसी हानिकारक प्रभाव के वातावरण का संतुलन बनाये रखते
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अत: किसी भी घटक का वैज्ञानिक आधार सुनिश्चित करने के लिये उस क्षेत्र एवं काल की प्राकृतिक संरचना एवं वनस्पतियों के संदर्भ जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है । तभी यह निरुपित किया जा सकता है कि अमुक महापुरुष उस क्षेत्र एवं काल में हुये थे । भगवान् श्री पार्श्वनाथ के संदर्भ में भी उक्त तथ्य सत्यता लिये हुये ही प्रतीत होते हैं कि उनका विहार, उपसर्ग एवं समवसरण की घटनायें उक्त वृक्षों के अनुसार निश्चित रूप से हुई थी।