Book Title: Tirthankar Parshwanath
Author(s): Ashokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharti

Previous | Next

Page 402
________________ ३३९ प्रभु पार्श्व की कतिपय कलापूर्ण ऐतिहासिक प्रतिमायें बुद्ध की प्रतिमा पर भी फणावली बनती थी ऐसे चित्र हैं। लोगों की विज्ञता क्रमश: बढ़ने पर सुपार्श्वनाथ से फणावली गायब होने लगी। जैन धर्म केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में अत्यधिक प्रतिष्ठापूर्ण श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। प्राचीन भारत के ऐतिहासिक सूत्र ढूंढने के लिए जैन और बौद्ध साहित्य के साथ साथ चीनी साहित्य भी बड़ा सहायक सिद्ध होता है। यहाँ हम उत्तर प्रदेश तथा उसके सीमावर्ती क्षेत्रों से प्राप्त कुछ पार्श्व प्रभु की प्रतिमाओं का उल्लेख कर रहे हैं जो लकड़ी, पाषाण, धातु, रत्न आदि की निर्मित हैं। इनमें से बहुत सी लेख रहित, कुछ लेख सहित, कुछ पद्मासन, कुछ कायोत्सर्ग मुदाओं में, कुछ संर्वतोभद्र तथा मानस्तम्भों में, विराजित प्राप्त हुई हैं। मथुरा के कंकाली टीले पर हुई खुदाई में जो बहुमूल्य सामग्री प्राप्त हुई है, उससे जैन धर्म की प्राचीन ऐतिहासिकता का पता लगता है। ईसा के सदियों पूर्व निर्मित आयाग पट्ट, स्तूपों, प्रतिमाओं पर ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्णित महत्वपूर्ण सामग्री मिली है। जैन धर्म के माथुर संघ की प्रतिस्थापना यहीं से हुई। मथुरा भारत की प्राचीनतम नगरियों में से एक है। यह सरस्वती और लक्ष्मी (व्यापार) का • बड़ा भारी समृद्ध नगर था। यहां शुंग, कुशाण, गुप्त कालीन संस्कृति का स्वर्थ स्थल था। (१) सबसे प्राचीनतम पार्श्वप्रभु की प्रतिमा यहीं से मिली आयाग पट्ट यहां . के पुरातत्व की पहली कड़ी है। और स्तूप भी यहां के बहुत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक हैं तथा सर्वतो भद्र प्रतिमाएं भी यहीं से प्राप्त होने ...लगीं थीं। आयागपट्ट (आर्यकपट्ट) चौराहों पर या मंदिर के भीतर पूजा के लिए चौकोर प्रस्तर पट्टों पर तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्णित की जाती थीं। इन आयाग पट्टों पर तीर्थंकर प्रतिमा के साथ साथ कलापूर्ण ढंग से अष्टमंगल द्रव्य लता, पुष्प पत्रादि उत्कीर्णित किए जाते थे। ऐसे आयाग कौशाम्बी से भी प्राप्त हुए हैं। लखनऊ म्यूजियम में कंकाली टीले का एक ही आयाग पट्ट प्राप्त है जिसमें उल्लिखित पंक्तियां प्राचीनतम आयागपट्ट की निशानी हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418