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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
उ.प्र एवं बिहार के मैदानी भागों का अवलोकन करें तो ज्ञात होता है कि वहां का अधिकांश भाग गंगा की बहाई हुई जलोढ़ मिट्टी का बना हुआ है, जो कि भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्व का ही निर्मित हुआ भाग है। जहां तक संवर ने पत्थर बरसाने का उपसर्ग किया सो पर्वतीय क्षेत्रों में ही पत्थरों की बहुलता होती है। यह तथ्य अलग है कि चूंकि संवर एक देव था तो वह कहीं से भी पत्थर ला सकता था। परन्तु वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में तो. यह किसी पर्वतीय क्षेत्र अथवा उसके आस-पास के क्षेत्र में ही संभव था।
चैत्य वृक्ष
केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान् के समवसरण की रचना होती. है। भ. पार्श्वनाथ की चैत्य वृक्ष अथवा अशोक वृक्ष के नीचे दिव्यध्वनि . खिरी थी। यह चैत्य वृक्ष वास्तव में 'धव' वृक्ष था ऐसा वर्णन कुछ जगह मिलता है। जबकि कुछ इतिहासकार देवदारुं' को भ पार्श्वनाथ का ही चैत्य वृक्ष मानते हैं।
धव धव के कई पर्यायवाची नाम हैं -
"धव: पिशचवृक्षश्व, शकटाख्यो धुरंधरः" धव, पिशाचवृक्ष, शकटाख्य, धुरंधर ये सब धव वृक्ष के पर्यायवाची नाम हैं। वैसे हिन्दी में इसे धौ, धौरा, धों, बंगाली में धाउयागाछ, मराठी में धावज़, धवल,कन्नड़ में दिदंगु भी कहते हैं।
यह वृक्ष म.प्र., राजस्थान, उ.प्र., बिहार, गुजरात एवं दक्षिण भारत में सर्वत्र मिलता है। इसका वृक्ष बड़ा या मध्यम ऊंचाई का होता है। छाल मोटी, चिकनी एवं पत्ते चौड़े होते हैं। फरवरी में गहरे लाल रंग के पत्र गिरते हैं। पुष्प छोटे हरिताभ मुण्डक के रूप में सितम्बर से जनवरी तक आते हैं। फल चिपटे द्विपक्ष, चोंचदार एवं दिसम्बर से मार्च तक पकते हैं। इस वृक्ष की लकड़ी बहुत लचकदार एवं मजबूत होती है। गाड़ी की धूरी