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तीर्थंकर पार्श्वनाथ : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में
३२५ अक्षराभ्यास के लिए इन्होने लिपि बनाई जिसका पुत्री ब्राह्मी के नाम से नामकरण दिया। इसी ब्राह्मी लिपि से ही आज की नागरी लिपि का विकास हुआ है। इनके पुत्र का नाम भरत था जिनके नाम से हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऋषभदेव ने अपने राज्यकाल में समाज व्यवस्था को सुदृढता प्रदान करने के लिए प्रजा का कर्म के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में विभाजन करके त्रिवर्ण की स्थापना की। ऋषभदेव के मुनि हो जाने के बाद भरत चक्रवर्ती ने इन्हीं तीन वर्षों में से व्रत और चारित्र धारण करने वाले सुशील व्यक्तियों का ब्राह्मण वर्ण बनाया। इसका आधार केवल व्रत-संस्कार था। इस प्रकार कर्मभूमि व्यवस्था का अग्र सूत्रधार ऋषभदेव ही ठहरते हैं। संभवत: इसीलिए इन्हें आदिब्रह्मा या आदिनाथ भी कहते हैं। समाज में शान्ति स्थापन के लिए इन्होंने 'धर्मतीर्थ' का भी प्रवर्तन किया। अन्तत: इन्होंने राजकाज से मुक्त हो साधनापंथ अंगीकार किया और निर्ग्रन्थ मार्ग के अनुसरणपूर्वक कैवल्य प्राप्त किया। अतएव जैनों के आदि धर्म-प्रवर्तक. ऋषभदेव ही हैं। जैनेतर कतिपय लोग भ्रमवश अथवा विद्वेषवश हमारे अंतिम २४वें तीर्थंकर महावीर को जैन धर्म का प्रवर्तक .: कहने लगे हैं, जो उचित नहीं है।
_ "संसार सागर को स्वयं पार करने वाले तथा दूसरों को पार कराने वालें महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। .... उनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण इन पांच अवसरों पर महान उत्सव होते हैं जिन्हें पंचकल्याणक कहते हैं। तीर्थंकर बनने के संस्कार षोडशकारणरूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बंधना कहते हैं.। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहां भी किसी तीर्थंकर या केवली के पादमूल में ही होने संभव हैं। ऐसे व्यक्ति प्राय: देवगति में ही जाते हैं। फिर भी यदि पहले से नरकायु का बंध हुआ हो और पीछे तीर्थंकर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तीसरे नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, उससे अनन्तर भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त करते हैं"। . “जिनके ऊपर चन्द्रमा के समान धवल चौंसठ चमर दुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थकर कहते है" ।'