Book Title: Tirthankar Parshwanath
Author(s): Ashokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharti

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Page 387
________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ इस श्रृंखला में प्रामाणिक बन चुकी है। यह नारायण कृष्ण के चचेरे भाई थे। इनके पिता द्वारिकाधीश महाराज समुद्रविजय थे। उत्तराध्ययन, समवायांग और आवश्यकनियुक्ति में २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का जन्म स्थान शौरीपुर माना गया है । इनके रथनेमि नामक अन्य भाई का उल्लेख भी मिलता है । विदेशी विद्वान डॉ. फुहरर ने इन्हें ऐतिहासिक पुरुष स्वीकार किया है। नारायण कृष्ण महाभारत कालीन हैं, और नेमिनाथ या अरिष्टनेमि श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। महाभारत निर्विवाद रूप में ऐतिहासिक ग्रन्थ है। अतएव जैनों के २२वें तीर्थकर की ऐतिहासिकता में . संदेह नहीं रह गया है। मेरे लेख का मूल विषय तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता पर विचार एवं प्रामाणिक आधार प्रस्तुत करना है. यद्यपि साहित्यिक रुचि वाले अध्येता को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के गणितीय हिसाब-किताब से जूझना दुष्कर कार्य है तथापि मैं पूर्व अभिलेखों, आगम ग्रन्थों. जैन साहित्य के इतिहासों, शोध-ग्रन्थों, चरित काव्यों आदि से तिथियों को संजोने की चेष्टा कर रहा हूं। जैन अनुश्रुतियों के आधार पर इस कल्पकाल से पहले भी भोगभूमि थी। इस में जीवनयापन करने के लिए कर्म करने की आवश्कता नहीं थी। कल्पवृक्ष सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे। युगल उत्पन्न होते थे। वे सहचर के रूप में रहते थे। भोगभूमि में सन्तान युगल के उत्पन्न होते ही माता-पिता युगल मर जाते थे। कोई समस्या नहीं थी। कालगति आगे बढ़ी और भोगभूमि की व्यवस्था क्षीण हुई तो जीवन. सम्बन्धी आवश्यकताएं मुंह बाए सामने आ गईं। अतएव भोगजीवन से कर्म जीवन का श्रीगणेश हुआ। यह भी अनुश्रुति है कि कर्मजीवन से सम्बन्धित समस्त शिक्षाओं, उपायों को बताने-सिखाने के लिए इसी काल में क्रमश: १४ मनु या कुलकर उत्पन्न होते हैं। यही लोक की समस्त व्यवस्थाएं जमाते हैं। अन्तिम कुलकर नाभिराय नामक राजन थे। इनकी युगल सहचरी का नाम मरुदेवी था। हमारे प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ, ऋषभदेव या वृषभदेव . उक्त श्री नाभिराय के पुत्र थे। गांव-नगर आदि की बसावट इन्हीं के काल से हुई। इनकी एक पुत्री का नाम ब्राह्मी और दूसरी का सुन्दरी था

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