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पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थकर पार्श्वनाथ
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विचिन्त्येति किलोदभिद्य धरां सार्द्ध स्वकान्तया, • आजगाम दुतं पार्वे जिनेन्द्रत्य फणीश्वरः । ८२ त्रि:परीत्याशु तं धैर्यशालिनं प्रोपसर्गिणम, ननाम धरणेन्द्रश्च भक्त्या पद्मावती मुदा ।८३ . भट्टारक मथोद्धत्य प्रस्फुरत्फण पंक्तिभिः, भुवः प्रोत्याप्य देवोस्थात्तढाधा हानये दुतम्, । ८४ तत्योपरि विधायोच्चैः सघनं फण-मण्डपम्, बज्रतुल्यं जलामेद्यं स्थिता देवी स्वभक्तितः । ८५ तत्सर्वोपद्रवं तस्याशु तत्राभ्यां निवारितम्. त्वशक्त्या परया भक्त्या फणैर्विद्युच्चमत्कृतैः । ८६
. - श्री पार्श्वनाथ चरित, सप्तदश सर्ग. - साहित्याचार्य जी ने इन श्लोकों का अनुवाद किया है -
"ऐसा विचार कर धरणेन्द्र पृथ्वी का भेदन कर अपनी स्त्री के साथ शीघ्र ही जिनराज के समीप आ पहुंचा। धैर्य से सुशोभित तथा बहुत भारी उपसर्ग से युक्त भगवान्. पार्श्वनाथ की तीन प्रदक्षिणाएं देकर, - धरणेन्द्र तथा पद्मावती ने भक्ति से हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार किया''।
तदनन्तर धरणेन्द्र शीघ्र ही भगवान् की बाधा दूर करने के लिये उन्हें दैदीप्यमान फणाओं की पंक्ति द्वारा पृथ्वी से उठाकर खड़ा हो गया। उनके ऊपरं पद्मावती देवी अपनी भक्ति से उन्नत, सघन, बज्र सदृश तथा जल के द्वारा अमेघ फणा-मण्डप तानकर खड़ी हो गई। धरणेन्द्र और पद्मावती ने अपनी शक्ति और परम भक्ति से बिजली के समान चमकते हुए फणों के द्वारा उनका यह समस्त उपसर्ग दूर कर दिया।
“पार्श्वनाथ-चरित" नामक इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक सकलकीर्ति ईस्वी पन्द्रहवीं शताब्दी में की है। उन्होंने धरणेन्द्र द्वारा भगवान को फणों के ऊपर उठाये जाने का उल्लेख करते हुए भी, देवी पद्मावती उसके भी ऊपर अपने फणों का छत्र लगाना ही दिखाया है । भगवान् को पद्मावती द्वारा अपने सिर पर उठाये जाने का समर्थन या संकेत यहां भी नहीं मिलता।