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तीर्थकर पार्श्वनाथ तब फनेस आसन काँपियो, जिन उपकार सकल सुधि कियो। तर्ताहन पदमावती लै साथ, आयौ जहँ निवसें जगनाथ।४३ करि प्रनाम प्रदक्षिना दई, हॉथ जोरि पद्मावती नयी, फन-मण्डप कीनौ प्रभु-सीस, जल बाधा व्यापै नहिं ईस ।४४ नागराज सुर देख्यौ जाम, भाज्यौ दुष्ट जोतिषी ताम ।.
- पार्श्व-पुराण, आठवाँ अधिकार, यहां धरणेन्द्र को ज्योतिषी कहा गया :
इस प्रकार धरणेन्द्र द्वारा भगवान् पर फण-वितान तानने और देवी पद्मावती के द्वारा उस पर अपना छत्र लगा लेने की बात ही पुराणों में सर्वत्र मिलती है। इस संदर्भ में देवी की इस मनस्थिति को भी ध्यान में रखा जाना चाहिये कि धरणेन्द्र का राग भगवान् की रक्षा तक सीमित था जबकि पद्मावती भगवान् की कुशल-कामना से प्रेरित तो थी ही, अपने पति को भी उपसर्ग से सुरक्षित रखना उसका ध्येय या अभिप्राय हो सकता है। इसीलिये उसने अपने पति की फणावली के भी ऊपर अपना वज्रमय छत्र धारण किया। यक्ष-दम्पति में से किसी के भी द्वारा भगवान् को मस्तक पर उठा लेने की बात किसी भी प्रकार प्राचीन पुराणों से समर्थित नहीं होती। उपसर्ग के निवारण के लिये यही उपाय उपयुक्त भी लगता है। जब आकाश से भयंकर जल-वृष्टि हो रही हो, और उन पर चारों ओर से शिला, पाषाण, वृक्ष तथा अंगारे बरसाये जा रहें हों, तब उस उपद्रव से उनका बचाव करने के लिये कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उनके ऊपर किसी प्रकार की छाया करने का ही उपाय करेगा। धरणेन्द्र तथा पद्मावती ने भी यही किया। उस स्थिति में यदि भगवान् को फण पर बिठा कर ऊपर उठा लिया जाये तो उससे आकाश से बरसते उपद्रवों का प्रतिकार कैसे सम्भव होगा? इसलिये युक्ति से भी भगवान् को फणाओं पर उठा लेने की बात उपयुक्त प्रतीत नहीं होती। परन्तु आगम बहुत विशाल है। ..
धरणेन्द्र द्वारा भगवान् को फणों पर उठाने का एक उल्लेख “पार्श्वनाथचरित” में अवश्य मेरे देखने में आया है। वहां ऐसा उल्लेख मिलता है