Book Title: Tirthankar Parshwanath
Author(s): Ashokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharti

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Page 365
________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ ३०२ छोटी सी प्रतिमा है। इतने छोटे से भगवान् और उनमें इतना बड़ा आकर्षण मैंने पहली बार बाबानगर में ही देखा । एक से एक बढ़िया और मनोज्ञ धातु-प्र - प्रतिमाओं का समृद्ध समवशरण, और उसके मध्य इतनी मनोज्ञ पार्श्व-प्रतिमा, इस अनजाने छोटे से ग्राम में देखने को मिलेगी, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। आज भी उस छवि के दर्शन कई बार स्वप्न में कर रहा हूँ । श्रवणबेलगोल के भट्टारक कर्मयोगी चारुकीर्ति स्वामीजी के साथ पिछले दिनों आचार्य कुन्दकुन्द देव की साधना स्थली पोन्नूर मलई की यात्रा करके हम लौट रहे थे । सहसा एक छोटे से गांव पेनकोंडा में स्वामींजी ने गाड़ी रुकवाकर जैन बस्ती में पदार्पण किया। सामान्य छोटा सा अप्रसिद्ध सा गांव, एक भी जैन श्रावक का घर नहीं । पर मन्दिर का दर्शन करके आंखें जुड़ा गईं। मन्दिर विशाल, सुन्दर और चकाचक साफ-सुथरा। मूल वेदी के सामने जाकर तो मैं निमष भर को आश्चर्य चकित रह गया। • मुझे लगा बाबानगर के पार्श्वनाथ भगवान् ही सामने विराजमान हैं। पर दस दिन में वे इतने बड़े कैसे हो गये? बस, आकार का ही अन्तर था । प्रकार वही था। वैसी ही मरकत - मणि में निर्मित सुन्दर, सानुपातिक, फणावली-मण्डित हरिताभ छवि। वहीं शान्त सस्मित मुख-मुद्रा और आनन पर वही मनोज्ञता। लगभग उतनी ही प्राचीन, प्रायः हजार वर्ष पूर्व की बनी हुई परन्तु ताजगी और नवीनता से भरी हुई एक दर्शनीय कलाकृति । मुझे आज भी लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी एक ही कलाकार ने दोनों प्रतिमाओं का निर्माण किया हो । स्थापित परम्परा इस प्रकारं पांचवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी ईस्वी तक एक हजार वर्ष के अंतराल में उत्कीर्ण शतश: पार्श्व प्रतिमाओं के सूक्ष्म अवलोकन के पश्चात् मैं यह कह सकता हूं कि स्वामी समंतभद्राचार्य के स्तवन के अनुरूप, और गुणभद्राचार्य तथा आचार्य दामनन्दी के निरूपण के अनुरूप ही, धरणेन्द्र के नाग-फणामण्डल से मण्डित पार्श्वनाथ प्रतिमाएं बनाने की आर्ष- परम्परा

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