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पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रचलित रही हैं। इसमें देवी पद्मावती को भगवान् के समीप खड़े दिखाया जाता था और उसके द्वारा धारण किया गया छत्र फणावली के भी ऊपर अंकित होता था।
उपसर्ग निवारण के लिये धरणेन्द्र ने, या देवी ने, भगवान् को सिर पर, या अपने फणाओं पर उठा लिया हो, ऐसी एक भी प्रतिमा, या पुराणों में ऐसा एक भी उल्लेख, पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्व का कहीं मेरे देखने में नहीं आया। जैन प्रतिमा विज्ञान में यह प्राचीन-आर्ष-परम्परा आज भी वैसी ही चली. आ रही है। मूर्ति बनना भी तो ऐसी ही चाहिये जिसमें भगवान् की वीतरागता सुरक्षित रहे और उनके महाव्रतों की औपचारिकता को भी कोई दोष लगता दिखाई न देता हो। जैन निर्माताओ की शास्त्रानुसारी परम्परा, और उस पर उनकी दृढ़ता का यह एक ज्वलंत प्रमाण है।
देवी पद्मावती के मस्तक पर विराजमान पार्श्व भगवान् का स्वरूप बहुत प्राचीन नहीं हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी ईस्वी के आस-पास, पंथ-व्यामोह के कारण ही ऐसी प्रतिमाएं बनना प्रारम्भ हुआ होगा। प्राचीन पुराणों में या कथा-ग्रंथों में ऐसा कोई आधार प्राप्त नहीं होता। ऊपर हम भट्टारक सकलकीर्ति के “पार्श्वनाथ-चरित" में धरणेन्द्र द्वारा भगवान् को अपनी फणाओं पर उठा लेने की बात पढ़ चुके हैं। सकलकीर्ति का काल १४७७ से. १४९७ संवत के बीच माना जाता है। सागर जिले में पटनागंज रेहली के जिनालय में किसी यक्ष या यक्षिणी के मस्तक पर विराजमान एक तीर्थकर मूर्ति मैंने देखी थी। श्वेत संगमरमर की यह मूर्ति विक्रम संवत १५४८, वैशाख सुदी ३ बुधवार के जीवराज पापरीवाल के लेख से अलंकृत थी। मेरी जानकारी में यक्ष-यक्षिणी के मस्तक पर विराजमान किसी तीर्थंकर भगवंत की वही प्राचीनतम प्रतिमा है। जीवराज पापरीवाल द्वारा संवत १५४८ में प्रतिष्ठित कई हजार मूर्तियों का दर्शन-अवलोकन करने का मुझे अवसर मिला है, पर उनके द्वारा प्रतिष्ठित वैसी प्रतिमा भी मैंने अब तक कहीं नहीं देखी।