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___ तीर्थंकर पार्श्वनाथ - हम ऊपर आचार्य समंतभद्रस्वामी, गुणभ्राचार्य और आचार्य दामनन्दी के प्रमाण देकर यह सिद्ध कर आये हैं कि उपसर्ग की घटना को लेकर इन तीनों आचार्यों के कथन में एकरूपता है। सकलकीर्ति भट्टारक का वर्णन पुराणों की इस पूर्व परम्परा से विपरीत और अयुक्ति संगत होने के कारण अधिक विचारणीय नहीं है। उनका काल विक्रम संवत १४७७ से १४९७ के मध्य का कहा जाता है। यह वह काल था जब दिगम्बर जैन समाज़ पंथों में बंट रहा था और देश में एक प्रकार की “धार्मिक-उदासीनता” का बोल बाला. हो रहा था। इसलिये भी भट्टारक जी की रचना की प्रामाणिकता या तटस्था पर प्रश्न-चिन्ह लग सकता है। वह “पंथ-प्रेरित” तो सिद्ध हो ही जाती है।
पाषाण प्रतिमाओं में पार्श्वनाथ का रूपाकंन
अब हम कुछ महत्वपूर्ण प्राचीन पाषाण प्रतिमाओं के माध्यम से भगवान् पर कमठ जीव कालसंबर द्वारा किए गये उपसर्ग की घटना का अध्ययन करना चाहेंगे। यहां यह विशेष रूप से ध्यान में रखना होगा कि उपसर्ग के अंकन वाली मूर्तियां केवल पाषाण फलकों पर और कायोत्सर्ग आसन में ही प्राप्त हुई हैं। जहां तक मुझे ज्ञात है, इस घटना का अंकन कहीं एक भी धातु-प्रतिमा, अथवा पद्मासन मुद्रा में अब तक देखने को नहीं मिला है। इसका एक लाभ यह तो हआ है कि निर्विवाद रूप से सब दिगम्बर परम्परा की मूर्तियां मानी जाती हैं। इस बात को लेकर आज तक कहीं कोई विवाद या संदेह नहीं है।
पार्श्वनाथ की खड्गासन मूर्तियां, खासकर जिनकी हम यहां चर्चा करना चाहते हैं प्राय: एक जैसी संयोजना में निर्मित मिलती है। उनमें परस्पर में एकरूपता अधिक है, विविधता कम है। प्राय: सभी मूर्तियों में भगवान् को खिले हुए कमल पर खड़े दिखाया गया है। उनके दोनों ओर चरणों के पास उनके दाहिने धरणेन्द्र तथा बांयें पद्मावती का अंकन है। मस्तक के पीछे सात या नौ फणों वाली फणावली है और उसके ऊपर छत्र अंकित है। ऐसी संरचना वाली मूर्तियां चौथी शताब्दी से लेकर बारहवीं-तेरहवीं