Book Title: Tirthankar Parshwanath
Author(s): Ashokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
Publisher: Prachya Shraman Bharti

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Page 360
________________ पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ २९७ शताब्दी तक बहुतायत से मिलती हैं। पार्श्वनाथ पर कालसंबर कृत उपसर्ग और धरणेन्द्र-पदमावती द्वारा उसक निवारण निश्चित ही ऐसी बिरल घटनाएं थी जैसी कोई घटना अन्य किसी तीर्थंकर के जीवन में घटित नहीं हुई। .. __- जीवन की इस रोमांचक घटना ने पार्श्वनाथ के भक्तों को उनके उपसर्ग-विजेता". “अडिग-तपस्वी" और "धीर-वीर महानायक" होने की स्मृति तो दी ही, शिल्पियों और कलाकारों को कल्पना के लिये एक नया आकाश भी दिया। इस घटना को रुपायित करते समय, अपनी कंवारी कल्पनाओं के द्वारा, कुछ तो अवश्य ऐसा चित्रित या अंकित किया जा सकता था, जैसा अन्य तीर्थंकरों के साथ सम्भव नहीं था। शायद इसी कारण देश के कोने-कोने में हमें भगवान् पार्श्वनाथ के तरह-तरह के बिम्ब प्राप्त होते रहे हैं। जैन कला का हर अध्येता यह मानने के लिये बाध्य है कि कलाकारों की हर पीढ़ी ने, किसी न किसी उपादान पर, किसी न किसी रूप में, इस अनोखे संदर्भ को अवश्य रेखांकित किया है। कलाभिव्यक्ति की कोई समर्थ विद्या इस कथानक से अछूती नहीं रह सकी। मूर्तिकला तो उससे सर्वाधिक प्रभावित रही है। . . ...अतीत काल से ही तीर्थंकर पार्श्वनाथ की इस छवि के अंकन के लिये साहित्य और शिल्प में एक अनवरत जुगलबन्दी चलती रही हैं। यह निर्णय करना आसान नहीं है कि मूर्तियों में उपसर्ग के दृश्य देखकर साहित्य में उनका वर्णन किया गया, या साहित्य के वर्णन को पढ़कर मूर्तियां गढ़ी गई। पाषाण पर प्रतिमा उत्खनन हो या अभिलेख का अंकन, ताड़पत्र पर शब्दों और चित्रों का अंकन हो या कागज पर, सर्वत्र सदा भगवान् पार्श्वनाथ का यह विश्व-वंद्य रूप हमें साकार विद्यमान मिलता है। उन अनेकानेक - कला-कृतियों में से यहाँ हम कुछेक की ही चर्चा कर पायेंगे। १. मथुरा संग्रहालय में क्र.जे. ११४ पर पार्श्व-प्रतिमा का शीर्ष रखा है। चौथी-पांचवीं शताब्दी की मूर्तिकला का यह एक जीवन्त उदाहरण है। भगवान् की स्मित मुख-मुद्रा, आत्म-लीनता और उनके अर्द्ध-निमीलित

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