________________
तीर्थंकर पार्श्वनाथ फणक-मण्डल को छत्र की तरह तान लिया और देवी पद्मावती उस फण - वितान के भी ऊपर अपना वज्रमय छत्र धारण करके खड़ी हो गई । मूर्तियों के अंकन के बारे में हम आगे विचार करेंगे। यहां तो प्रश्न उठाने का एक कारण और भी था कि स्वयं गुणभद्राचार्यजी ने इसी पर्व में आगे उपसर्ग निवारण और कैवल्य प्राप्ति के उपरान्त भगवान् की स्तुति करते हुए एक बार पुन: पूरी घटना का स्प्ष्ट चित्रण किया है
२९२
भेदेाऽद्रे फणिमण्डपः फणिवधू छत्रं क्षतिर्घातिना, कैवल्याप्तिरधातुदेह महिमा हानिर्भवस्यामरी । भीतिस्तीर्थकृदुद्गमोऽपगमनं विघ्नस्य चासन्समं,. भर्तुर्यस्य स संततान्तकभयं हन्तुग्रवंशाग्रणी ।
. उत्तरपुराण पर्व ७३, श्लोक : १६६
•
“हे नाथ ! पर्वत का फटना, धरणेन्द्र द्वारा आप पर फणा - मण्डल का मण्डप तानना, पद्मावती के द्वारा उसके ऊपर वज्रमय छत्र धारण करना, आपके घातिया कर्मों का नष्ट होना, आपको कैवल्य की प्रप्ति होना, शरीर का धातु-रहित परम औदारिक रूप में परिणत होना, जन्म-मरण रूप संसार का विघात होना तथा संबर देव का भयभीत होकर पलायन करना, तीर्थंकर नाम कर्म का उदय होना और समस्त विघ्नों का नष्ट होना, ये सब कार्य एक साथ ही तो प्रगट हुए थे ।
गुणभद्राचार्य के इस संस्तवन से यह स्पष्ट हो जाता है कि धरणेन्द्र ने भगवान् को अपनी फणावली की छाया में ढक लिया और देवी पद्मावती ने उन पर अपना वज्रमय छत्र धारण करके अपने अनुराग का परिचय दिय । इतने मात्र से ही उपसर्ग का निवारण हो गया। दोनों में से किसी ने भी भगवान् को उठाया नहीं । छुआ तक नहीं। यहां यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि पर्वत के फटने से लेकर विघ्न टलने तक सारे ही अतिशय एक साथ घटित हुए, इसलिये ऐसा कहना ठीक नहीं है कि “फणाक्ली युक्त जितनी भी प्राचीन पार्श्व - प्रतिमाएं हैं, वे सब उनकी मुनि अवस्था की
4
मूर्तियां हैं, अत: पूज्य नहीं हैं”। “परम्परा से मूर्तियां तो अर्हत की ही बनती