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पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ
२९१ भद्रं तमस्थादावृत्य तत्पत्नी च फणाततेः । उपर्युच्चैः समुद्धत्थ स्थिता बज्रातपच्छिदम। । १४० । ।
. उत्तरापुराण पर्व ७३ इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा - "अवधि ज्ञान से उस उपसर्ग को जानकर धरणेन्द्र पृथ्वी से निकला। वह दैदीप्यमान रत्नों वाले फणा-मण्डल से सुशोभित था। वह धरणेन्द्र भगवान् को अपने फणामण्डल से आवृत्त करके, ढंक कर खड़ा हो गया और उसकी देवी उस फणावली के ऊपर अपना वज्रमय छत्र धारण करके खड़ी हो गई।"
इस संदर्भ में यह तथ्य स्मरणीय है कि पं. लालारामजी ने इन श्लोकों के अनुवाद में लिखा था कि ."धरणेन्द्र ने चारों ओर से ढक कर भगवान् को ऊपर उठा लिया" । पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने भी लालाराम जी के अधार पर पहले यही अर्थ लिखा जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित प्रथम संस्करण में वैसा ही छप भी गया। १९८६ में उनका ध्यान इस विसंगति की ओर आकृष्ट किया गया कि यह अर्थ संगत नहीं बैठता, क्यों कि उपसर्ग निवारण के लिये ध्यानस्भ योगी को ऊपर उठा लेना तो दूसरा उपसर्ग हो जायेगा, इसलिये “फणाओं के ऊपर उठा लिया” के स्थान पर “फणाओं को उनके ऊपर उठा लिया” ऐसा अर्थ किया जाना चाहिये। मेरे पत्र पर पण्डितजी ने कृपा पूर्वक विचार किया और अपने १६-११-८६ के पत्र में मुझे स्पष्ट किया कि “धरणेन्द्र द्वारा भगवान् को ऊपर उठा लेने वाला अर्थ सचमुच असंगत है और उसके द्वारा अपने फणा-मण्डल को भगवान् के ऊपर छत्र की तरह तान लेना ही सही अर्थ होगा” । अब उनके अनुसार भारतीय ज्ञानपीठ ने भी दूसरे संस्करण में इस अर्थ को तदनुसार सुधार कर प्रकाशित किया है।
- इस प्रकरण पर मेरे द्वारा जो प्रश्नचिन्ह लगाया गया उसका कारण यह था कि धरणेन्द्र द्वारा भगवान् को अपने फणाओं पर ऊपर उठा लेने का दृश्य प्राचीन प्रतिमाओं के अंकन से मेल नहीं खाता था। मूर्तियों में अति प्राचीन काल से यही दर्शाया गया है कि धरणेन्द्र ने भगवान् के ऊपर अपने