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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
कि ये एक मुनि थे और इनके गुरू का नाम जिणसेन (जिनसेन ) था। डॉ. प्रफुल्ल कुमार मोदी ने इन्हें सप्रमाण दक्षिण का माना है । १५
पदम्कीर्ति ने अपनी इस कृति में भगवान् पार्श्वनाथ के चरित्र का वर्णन विविध घटनाओं सहित १८ संधियों, ३१० कड़वकों और ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियों में किया, ऐसा उन्होंने स्वयं उल्लेख किया है । " पहली संधि से सातवी संधि तक भगवान् पार्श्वनाथ और कमठ के विगत भवों के वर्णन के पश्चात् पार्श्वनाथ के वर्तमान भव का विशद विवेचन, शेष सन्धियों में किया गया है। आठवीं संधि में पद्मकीर्ति ने लिखा है कि वैजयन्त स्वर्ग से च्युत होकर कनक प्रभदेव वाराणसी के राजा हयसेन की रानी वामा के गर्भ में अवतरित हुआ । नौवीं संधि में १६ वर्ष की आयु तक की गई भगवान् पार्श्वनाथ की बाल क्रीड़ाओं का उल्लेख किया गया है। जब पार्श्व को मालूम हुआ उनके मामा रविकीर्ति के सहायतार्थ यवनराज से युद्ध करने के लिए उनके पिता जा रहे हैं तो उन्हें रोक कर पार्श्वनाथ पिताश्री से आदेश लेकर युद्ध करने चल पड़ते हैं । भयंकर युद्ध कर पार्श्वनाथ यवनराज को बन्दी बना लेते हैं । इसका वर्णन पद्मकीर्ति ने ११वी और १२वी संधि में विस्तार से किया, जो इनके पूर्ववर्ती किसी आचार्य के पार्श्व संबंधी ग्रंथ में उपलब्ध नहीं है । तेरहवीं संधि में रविकीर्ति के द्वारा रखे गये. इस प्रस्ताव को पार्श्वनाथ स्वीकार कर लेते हैं कि प्रभावती नामक
राजकुमारी के साथ विवाह कर लेंगे। इसके पश्चात् तापसों द्वारा जलाये जाने वाली लकड़ी में से अधजले सर्प को पार्श्वनाथ द्वारा मंत्र सुनाने, मंत्र के प्रभाव से मरे उस नाग को पाताल में वन्दीवर देव होने, सर्प की मृत्यु दृश्य को देखकर पार्श्व को वैराग्य होने, और जिन दीक्षा आदि का वर्णन किया गया है ।
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भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा तप, संयम और ध्यान करने, कमठ के जीव असुरेन्द्र द्वारा उनपर भयंकर उपसर्ग करने, धरणेन्द्र द्वारा उन उपसर्गों को दूर करने, पार्श्वनाथ को केवल ज्ञान उत्पन्न होने आदि का वर्णन इस ग्रंथ की १४वीं संधि में हुआ है। १५वीं संधि में इन्द्र द्वारा समवशरण की रचना करने, हस्तिनापुर के राजा स्वयंभू का जिन दीक्षा लेकर प्रथम गणधर होने,