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आचार्य जिनसेन (द्वितीय) और उनका 'पार्वाभ्युदय' काव्य कमठ का मुँह देखना भी गवारा नहीं किया। कमठ अपने अनुज पर क्रुद्ध होकर जंगल चला और वहाँ उसने तापस-वृत्ति स्वीकार कर ली। ___अपने अग्रज कमठ की इस निर्वेदात्मक स्थिति से जाने क्यों मरुभूति को बड़ा पश्चाताप हुआ। जंगल जाकर उसने अपने अग्रज कमठ को ढूँढ निकाला और वह उसके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगने लगा। क्रोधान्ध कमठ ने पैरों पर गिरे हुए मरुभूति का सिर पत्थर मारकर फोड़ डाला, जिससे उसकी वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई।
इस प्रकार, अकाल मृत्यु को प्राप्त मरुभूमि आगे भी अनेक बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ता रहा। एक बार वह पुनर्भव के क्रम में काशी जनपद की वाराणसी नगरी में महाराज विश्वसेन और महारानी ब्राह्मी देवी के पुत्र-रूप में उत्पन्न हुआ और तपोबल से तीर्थंकर पार्श्वनाथ बनकर पूजित हुआ। अभिनिष्क्रमण के बाद, एक दिन, तपस्या करते समय पार्श्वनाथ को पुनर्भवों के प्रपंच में पड़े हुए शम्बर नाम से प्रसिद्ध कमठ ने देख लिया। देखते ही उसका पूर्व जन्म का वैर भाव जग पड़ा और उसने मुनीन्द्र पार्श्वनाथ की तपस्या में विविध विघ्न उपस्थित किये। अन्त में मुनिन्द्र के प्रभाव से कमठ को सद्गति प्राप्त हुई। जिज्ञासु जनों के निए इस कथा का विस्तार जैन पुराणों में द्रष्टव्य है। मरुभूति का अपने भव से पार्श्वनाथं के भंव में प्रोन्नयन या अभ्युदय के कारण इस काव्यकृति का पाश्वोभ्युदय नाम सार्थक है। ___ इस 'पार्वाभ्युदय' काव्य में कमठ यक्ष के रूप में कल्पित है और उसकी प्रेयसी भ्रातृपत्नी वसुन्धरा की यक्षिणी के रूप में कल्पना की गई है। राजा अरविन्द कुबेर है, जिसने कमठ को एक वर्ष के लिए नगर-निर्वासन का दण्ड दिया. था। शेष अलकापुरी आदि की कल्पनाएँ 'मेघदूत' का ही अनुसरण-मात्र हैं।
.. आचार्य जिनसेन ने 'मेघदूत' की कथावस्तु को आत्मसात् कर उसे 'पार्वाभ्युदय' की कथावस्तु के साथ किस प्रकार प्रासंगिक बनाया है, इसके दो-एक उदाहरण दृष्टव्य हैं।