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एक जननायक तीर्थंकर : भगवान् पार्श्वनाथ
२६१ हैं, वंदनीय बन जाते हैं; उनकी पूजा-अर्चना के प्रतीक भौगोलिक सीमाओं को पार कर जाते हैं।
वाराणसी में आविर्भूत हुए भगवान् पार्श्वनाथ ने कैवल्य प्राप्ति के अनन्तर सत्तर वर्षों तक पूरी मानवता को धर्मोपदेश देकर कृतार्थ किया। उनका निर्वाण ई. पूर्व ९९९वें वर्ष में, भगवान् महावीर के निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व सम्मेद शिखर में हुआ। भगवान् पार्श्वनाथ के धर्मोपदेशों पर पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगत होते हैं। उनमें भगवान् आदिनाथ की त्यागोन्मुखी आकिंचन्य मुनिवृति, नमि की निरीहता और नेमिनाथ की अहिंसा का समन्वित रूप चातुर्याम की शक्ल में समेकित हुआ है। इनके अन्तर्गत : ... १. सर्वप्राणातिक्रम से विरमण - २. सर्वमृषावाद से विरमण
३. सर्वअदत्तादान से विरमण . ४. सर्व वहिस्थादान से विरमण सन्निहित हैं। इस चातुर्याम का जिक्र मूलाचार के अतिरिक्त बौद्ध साहित्य . में भी उपलब्ध है। यह बात इस ओर इशारा करती है कि जन सामान्य
के जीवन की शुचिता के प्रति भगवान् पार्श्वनाथ सचेत थे एवं उनकी प्रतिबद्धता एक प्रामाणिक एवं नैतिक जीवन को जीने के प्रति थी। उनकी इस आचार-संहिता के प्रति जनमानस में आदर था तथा उसे पूर्णता में स्वीकार करने का ईमानदार प्रयास भी तत्कालीन समाज कर रहा था जो भंगवान् पार्श्वनाथ की लोकप्रियता के द्वारा प्रमाणित होता है। - भगवान पार्श्वनाथ के लोकमंगल स्वरूप का प्रामाणिक दस्तावेज यदि हमें तलाशना हो तो गुफाओं के शिल्प और उनमें विराजमान मूर्तियों की ओर दृष्टिपात करना समीचीन होगा। गुफाओं का अध्ययन इस कारण आवश्यक है कि साधना का केन्द्र ये गुफाएं थीं और शहर या ग्रामों के कोलाहल से दूर मुनिगण यहां के शान्त वातावरण में आत्म-ध्यान करते
थे।