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एक जननायक तीर्थंकर : भगवान पार्श्वनाथ
- डा. नलिन के. शास्त्री*
सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्धान प्रो. विंटरनिट्ज़ ने भारतीय संस्कृति और जीवन शैली के वैविध्य में खुशबू बिखेरती जैन संस्कृति के मानकों को अपनी सम्पूर्ण जिज्ञासा का केन्द्र-बिन्दु बनाते हुए भगवान् पार्श्वनाथ की दन्त कथाओं के नायकों के रूपक से तुलना की है। उत्तराध्ययन सूत्र के केसी-गोयम संवाद' के अनुसार जिस कालखण्ड में महावीर. ने अपना अचेलक या निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय स्थापित किया, उस समय पार्श्वनाथ का प्राचीन सम्प्रदाय प्रचलित था। जब महावीर के सम्प्रदाय के अधिनायक गौतम थे, उस समय पार्श्व सम्प्रदाय के नायक थे केशी कुमार श्रमण। पार्श्व सम्प्रदाय की धार्मिक अवधारणा संतरोत्तर' तथा वर्द्धमान की अचेलक धर्म की व्यवस्था के बीच ऋजु-जड़ (सरल किन्तु जड़) तथा ऋतु प्राज्ञ (सरल और समझदार) के आयाम अन्तर की अनुयायी परिस्थितियों को स्पष्ट करते हैं। इसी प्राज्ञ स्थिति ने चातुर्याम की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। इस संवाद से यह बात साफ होती है कि पार्श्व-सम्प्रदाय ने वीतराग की बुनियाद को मजबूत किया, साथ ही उसके विकास को गति दी, दिशा दी। इस परम्परा के जन-अनुयायी काफी संख्या में थे तथा भगवान् पार्श्वनाथ उनके लिये एक प्रेरक प्रसंग थे, उनकी आराधना के केन्द्र-बिन्दु थे और कालान्तर में बन गये अनगनित जन-श्रुतियों के जनक। यही कारण था कि विंटरनिट्ज ने उन्हें दन्त-कथाओं के उस नायक के रूप में पहचाना जो पूरी सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना को एक नयी दिशा देता है, एक नया उद्बोध देता है, संस्कारों की परिशुद्धि करता है और पूरे समाज को एक सूत्र में बांधता है। स्वाभाविक है कि ऐसे महानायक पूजनीय हो जाते
* मगध विश्वविद्यालय, गया