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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
पनपने और फूलने-फलने में पूरा वर्ष लगता है। शरीर पर उस लता का अंकन ही बता देता है कि ये योग-चक्रवर्ती छहों ऋतुओं को अपने निरावरण तन पर झेलते हुए, ऐसे ही अडिग ध्यानस्थ खड़े रहे थे। .
बाहुबली स्वामी की यही “लता-वेष्ठित” छवि जन-जन के मानस में प्रतिष्ठित हुई है। सिद्धान्त-चक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य महाराज ने बार बार इसी रूप में उनका स्मरण और गुणगान किया है। आज. उनका दर्शन करते समय किसी को भी वे लताएं बाधक नहीं लगती। सबने उस प्रतिमा में सदा उस विराट पुरुष का ही दर्शन किया है। उसी की वन्दना की है। माधवी लताएं उस समय अपने आप दृष्टि से तिरोहित होकर गौण और अप्रासंगिक होकर रह जाती हैं। उनकी थिरता का प्रतीक बन जाती हैं।
बस।
पार्श्वनाथ प्रतिमाओं पर नाग-फण
तीर्थंकर भगवन्तों की एक विशेषता यह रही है कि उनकी साधना निर्विघ्न होती है। परकृत परिषह और उपसर्ग प्राय: उनपर नहीं होते। पर इस हुण्डावसर्पिणी काल में यह नैसर्गिक नियम भी खण्डित होना था। : भगवान पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी पर साधना काल में उपसर्ग हुए। किसी पूर्व-भव में कमठ के जीव से पार्श्वनाथ के जीव की अनबन हो गई थी। दुष्ट कमठ के जीव ने भवान्तर तक उसका बदला लिया फिर भी उसकी कषाय शान्त नहीं हुई। दीक्षा के पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ जब तप में लीन हुए, तब कमठ का जीव कालसंवर देव पर्याय में था। विभंग अवधिज्ञान के द्वारा पूर्व-वृत्तान्त जानकर उस पामर असुर ने उन ध्यानमग्न मुनिराज पर दानवी उपद्रव प्रारम्भ कर दिये।
लगातार सात दिनों तक ध्यानस्थ तीर्थंकर पार्श्वनाथ पर भयंकर उपसर्ग होते रहे। कभी प्रचण्ड आंधी आई, कभी अग्नि की वर्षा ने पूरे तपोवन में दावानल का दृश्य उपस्थित कर दिया। कभी पानी की तीव्र बरसात हुई, वज्रपात हुए और उपल वर्षा होती रही।। कालसंवर की माया