________________
१८२
जैन स्तोत्र और भगवान पार्श्वनाथ
__ अर्थात् प्रभो! हृदयमंदिर में आपके विराजमान रहने पर निविड भी कर्मबन्ध शिथिल हो जाते हैं, जैसे चन्दन के वृक्ष पर मोर के आने पर, उससे लिपटे हुए सर्प ढीले. पड़ जाते हैं। कारण यह है कि स्तोत्रों में जिन तीर्थंकरों या पुण्यात्मा पुरुषों की स्तुति की जाती है, वे सभी कर्मजेता हुए हैं। उन्होंने अज्ञान काम-क्रोधादि प्रवृत्तियों पर पूर्णत: विजय प्राप्त की है, उनके हृदय -मंदिर में विराजमान रहने पर पाप खड़े नहीं रह सकते। यह भी कह सकते हैं कि इन पुण्य पुरुषों के ध्यान से अत्मा का शुद्धात्म स्वरूप सामने आता है और स्तोता उसे प्राप्त करने को बेचैन हो उठता है। पाप परिणति नष्ट हो जाती है और वह अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है। मुक्त हो जाता है।
जैन स्तोत्रकारों के उपास्य यद्यपि सभी तीर्थंकर पुण्य पुरुष समान रूप से हैं तथापि ऋषभदेव और पार्श्वनाथ को आधार बनाकर अधिकांश स्तोत्र. रचे गये हैं। इनमें भी पार्श्वनाथ परक स्तोत्र ही अधिक हैं। जिन स्तुति/स्तोत्रों में चौबीसों तीर्थंकरों या महापुरुषों की स्तुति की गई है उनमें भी पार्श्वनाथ की स्तुतिपरक पद्यों की संख्या अन्य की अपेक्षा अधिक रहती है। इसका कारण क्या है। हमारी अल्प बुद्धि में तो यही कारण समझ में आता है कि जैसा कि आज भी लोक में यह धारणा प्रचलित है कि तीर्थंकर पार्श्वनाथं विघ्नों का नाश करने वाले हैं। लोक में आज भी पार्श्वनाथ की छविं विघ्नविनाशक के रूप में प्रख्यात है यही कारण है कि पार्श्वनाथ के साथ - 'विघ्नविनाशक', 'विघ्न हर' जैसी उपाधियां लग गई हैं। वीतरागी देव पार्श्वनाथ के साथ ऐसी उपाधियां कब और कैसे जुड़ गईं यह अनुसन्धान का विषय है। . ___ प्राचीनतम जैन स्तोत्रों में कुन्दकुन्द कृत 'तित्थया शुद्धि' तथा 'सिद्ध भक्ति' की गणना की जाती है। भद्रबाहु के नाम से प्रचलित ‘उवसग्ग हर स्तोत्र' भी अति प्राचीन एवं महत्वपूर्ण है। संस्कृत स्तोत्रकारों में आचार्य समन्त भद्र अग्रगण्य हैं। इनके 'स्वयम्भू स्तोत्र' 'देवागम स्तोत्र', 'मुक्त्यनुशासन', जिन स्तुति शतक' अति प्रसिद्ध हैं।