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तीर्थंकर पार्श्वनाथ भक्ति गंगा.के आलोक में भगवान पार्श्वनाथ
.. - डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन “भारती"*
नगेन्द्र फणीन्द्रं सुरेन्द्र अधीसं । शतेन्द्रं सु पूजै भमैं नाय शीसं । मुनीन्द्रं गणेन्द्रं नमो जोडि हाथं । नमोदेवदेवं सदा पार्श्वनाथं ।।
“तीर्थंकर पार्श्वनाथ भक्ति गंगा" डॉ. प्रेमसागर जैन द्वारा सम्पादित एक ऐसी महनीय कृति है जिसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की भक्ति में विभिन्न कवियों द्वारा रचित १०२ पद्यों का संकलन किया गया है। भक्ति भावना आधारित होती है कहते हैं “भावना भव नाशिनी, दुर्भावना भव वर्द्धिनी।" अर्थात् सद्भावना संसार का नाश करने वाली एवं दुर्भावना संसार को बढ़ाने वाली होती है। “अभिधान राजेन्द्र कोश" के अनुसार “भक्ति” शब्द "भजं" धातु में स्त्री लिंग “क्तन्” प्रत्यय लगाने से बना है। जिसका अर्थ भजना है। “शांडिल्य" के अनुसार - "आत्मरत्वविरोधेति शांडिल्य:" अर्थात् आत्मा में तीव्र रतिभाव होना ही भक्ति है। श्री हेमचन्द्राचार्य ने "प्राकृत व्याकरण” में भक्ति को "श्रद्धा” कहा है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार - “अर्हदाचार्येषु प्रवचने च भाव विशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्ति:" अर्थात्. अरहन्त, आचार्य, बहुश्रुत (उपाध्याय) और प्रवचन में भाव विशुद्धि युक्त अनुराग ही भक्ति है। - भक्त और भगवान् को जोड़नेवाली भक्ति है जिसके प्रभाव से विष अमृत में बदल जाता है, बेड़ियों से जकड़ा व्यक्ति बन्धनमुक्त हो जाता है, अंजन निरंजन बन जाता है, कुत्ता देवगति पा लेता है, यहाँ तक कि भक्ति के बल से मनुष्य अष्टकर्मों का नाशकर सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है।
* बुरहानपुर