________________
तीर्थंकर पार्श्वनाथ भक्ति गंगा - के आलोक में भगवान् पार्श्वनाथ
१९९
मदन-कदन-जित परम धरम हित,
सुमिरत भगत भगत सब डरसी । सजल जलद-तन मुकुट सपत फन, कमठ-दनल जिन नमद बनरसी ।२७
अर्थात् संसार का अन्धकार - कर्मरूपी भ्रम, उसे हरने के लिए जो सूर्य के समान है, जिनके चरणों में शेषनाग झुका रहता है और जिन्होंने मोक्षमार्ग का दर्शन कर लिया है, ऐसे पार्श्व प्रभु की ओर देखते हैं तो आत्मरस बरसता दिखाई देता है, जिस से भव्यजन रूपी तालाब भरकर प्रफुल्लित हो उठता है। भगवान् परम धर्म के हेतु कामदेव को नष्ट कर जीत लेते हैं। भक्तजन जब उनका स्मरण करते हैं तो सब भय दूर भाग जाते हैं। उन प्रभु का शरीर जल भरे बादल के समान कान्तिवान् है, उनके सिर पर सात फण वाले सर्प का मुकुट लगा रहता है। वे कमठ नाम के असुर को दल डालते हैं। कवि बनारसी दास उनके चरणों में नमस्कार
करते हैं।
. भगवान् पार्श्वनाथ की विशेषताओं को कवि रूपचन्द ने इस रूप में वर्णित किया है।
सकल विकार रहित बिन अम्बर सुन्दर सुभ करनी। निराभरण भासुर छवि लाजत कोटि रतन तरनी।। वसुरस रहित शांत रस राजत बलि यह साधपनी । जाति विरोध जंतु जिह देखत तजत प्रकृति अपनी। दरसन दुरित हरे भव-संकट सुर-नर मर-मोहनी । रूपचन्द कहा कहौ महिमा त्रिभुवन मनी।। प्रभु तेरी मूरति रूप बनी।।२८
अर्थात् हे प्रभु तुम सम्पूर्ण विकारों से रहित दिगम्बर हो। तुम्हारे कार्य पवित्र हैं। आभरण रहित तुम्हारी छवि ऐसी चमकती है कि कोटि-कोटि रत्नों की चमक भी फीकी पड़ जाती है। आठ रस रहित केवल शान्त रस ही तुम में विराजता है। मैं तुम्हारे इस साधुपन पर बलिहार होता हूँ।