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तीर्थंकर पार्श्वनाथ भक्ति गंगा - के आलोक में भगवान् पार्श्वनाथ २०५
कवि कुमुदचन्द्र कहते हैं कि मुझसे भूल हो गयी। मैंने पारस प्रभु के चरणों का यश नहीं गाया, मैंने अपना नरभव व्यर्थ गंवा दिया - कुमुदचन्द्र कहें चूक परी मोही पारस पद जब नहिं गायो।। मैं तो नरभव बादि गंवायों ।४७ जगजीवन कवि कहते हैं कि :
जीवनराम करे प्रभु विनती दौड़ कर जोरि तुम्हारी जी।
तुमहो तीन लोक के ठाकुर कुमति कुसंग निवारो जी।" अर्थात् हे प्रभु जगजीवन दोनों हाथ जोड़कर तुम्हारी विनती करते हैं, तुम तीनों लोकों के ठाकुर हो, कुमति और कुसंग का निवारण करो।
कवि रूपचन्द कहते हैं कि :हां जी मोहि तारो सइयां हो पारस, मोहि. (टेक) भवदधि भवंणमाहि तैं मोकू करगहि वेग उबारो।। सइयां ।। विधि वसितें बहविधि अधकीने, सो सब नाहिं निहारों।। सइयाँ।। . पतित उधारक, पतित रटत हैं, दीजै रूप तिहारों ।। सइयां ।।
अर्थात् हे पारस स्वामी मुझे तार दो इस भव-समुद्र की भंवरों से मुझे हाथ पकडं कर उबार लो। दुर्भाग्यवशात् मैंने अनेक पाप किये हैं, उनकी तरफ मत देखो। तुम पतित उद्धारक हो और यह पतित आपकी रट लगाये हुए हैं, अत: अपना रूप देकर अपने समान बना लीजिए।
इसी भाव को सूरदास जी ने भी कहा है। हमारे प्रभु औगुन चित न धरो।
समदरसी है नाम तुम्हारो, सोई पार करो।५० कवि किजनचन्द भ. पार्श्व से जन्म मरण मिटाने की कामना करते हैं।
अधम उधार जगत के त्राता, तुम बिन और न साय। - चंद किसन तुम इम जांचत है, जामन मरन मिटाय" ।।