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प्रथमानुयोग में तीर्थंकर पार्श्वनाथ
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“उस युग में आत्मा और ब्रह्म की जिज्ञासा पुरोहित वर्ग में कितनी बलवती थी यह पीछे उपनिषदों के कुछ उपाख्यानों के द्वारा बतलाया गया है। इसी युग के आरम्भ में काशी में पार्श्वनाथ ने जन्म लेकर भोग का मार्ग छोड़ योग का मार्ग अपनाया था। उस समय वैदिक आर्य भी तप के महत्त्व को मानने लगे थे। किन्तु अपने प्रधान कर्म अग्निहोत्र को छोड़ने में असमर्थ थे। अत: उन्होंने तप और अग्नि को संयुक्त करके पञ्चाग्नि तप को अंगीकार कर लिया था । ऐसे तापसियों से ही पार्श्वनाथ की भेंट गंगा के तट पर हुई थी।”
तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चातुर्याम
पार्श्वनाथ उस श्रमण परम्परा के अनुयायी थे जिसका निर्देश वृहदायक उपनिषद में पाते हैं । वाल्मिकि रामायण में भी उनका संकेत हैं। जैन साहित्य में पांच प्रकार के श्रमण कहे गये हैं - निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गौरुक और आजीवक। जैन साधुओं को निर्ग्रन्थ श्रमण कहते हैं। बौद्ध त्रिपिटिकों में महावीर को निगंठ नाटपुत्त (निर्ग्रन्थ ज्ञात पुत्र ) कहा है और निर्ग्रन्थ शब्द का बहुधा उपयोग हुआ है । इस आधार से याकोबी ने प्रमाणित किया कि बुद्ध से पूर्व निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय वर्तमान था । अंगुत्तर निकाय में वप्प नामक शाक्य को निर्ग्रन्थ का श्रावक बतलाया गया है। पार्श्वनाथ ने 'चातुर्याम' का यह उपदेश दिया था (श्वेताम्बर टीकाकारों ने इन्हीं को याम कंहा है - यम का अर्थ है दमन करना । दिगम्बर परम्परा में अन्य
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अर्थ है).
१.
सर्व प्रकार के प्राणघात का त्याग
२. सर्व प्रकार के असत्य वचन का त्याग
३. सर्व प्रकार के अदत्तादान (बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण) का त्याग ४. सर्व प्रकार के परिग्रह का त्याग
निश्चित ही इन चार प्रकार के दमन का स्रोत तपस्वी मुनियों की परम्परा रहा होगा। यह संस्थापना एक मौलिक एवं ऐतिहासिक तथ्य थी ।