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तीर्थकर पार्श्वनाथ
उन्होंने मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका के भेद से चतुर्विध संघ की भी स्थापना की। स्वभावत: उस समय की परिस्थिति में सामान्य जनता को यह अहिंसा प्रिय लगी होगी, क्यों कि राजा तथा सम्पन्न ब्राह्मण पुरोहित वर्ग जनता से खेती के जानवरों को जबरदस्ती छीन कर यज्ञ यागों में उसका वध कर देते थे। (पार्श्वनाथ का चातुर्याम, बम्बई, पृ. १५-१६) . ___ आचार्य सकलकीर्ति एवं एक अन्य आचार्य ने भगवान् पार्श्वनाथ के विहार संबंधी देशों का उल्लेख किया है - कुरू, कौशल; काशी, अवंती, पुंडू, मालवा, अंग, बंग, कलिंग, पंचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दर्शार्ण, कर्नाटक, कौंकन, मेदपाद (मेवाड़), लाट, द्राविड़, काश्मीर, मगध, कच्छ, विदर्भ, शाक, पल्लव, वत्स इत्यादि (१७-२३; ७६-८५)। इन पर विशेष बिवरण कामता प्रसाद ने दिया है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ का धर्मोपदेश द्रव्य, क्षेत्र काल भाव के अनुसार मोक्षमार्गी तथा अन्य तीर्थंकरों के समान (त्रिकालं एवं त्रिलोक में समान रूप से) रहा होगा। षट् द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थों का निरूपण सदैव एकसा ही होगा। वट्टकेराचार्य ने सामायिक का वर्णन करते हुए स्पष्टत: कहा है :
वावीसं तित्थयरा सामाइयं संजम उवदिसंति। छेदोवट्ठावणियं पुणभयवं उसहो य वीरो य ।।७-३२ । । (मूलाचार)
अर्थात् “अजित से लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का और ऋषभदेव तथा महावीर भगवान् ने 'छेदोपस्थापना' संयम का उपदेश दिया है।" पं. जुगल किशोर के अनुसार “च” कार से परिहारविशुद्धि आदि चारित्र का भी ग्रहण किया जा सकता है। इस प्रकार विधायक क्रम में भेद का कारण, छेदोपस्थापना का स्थापन अति सरलता
और अति वक्रता के लिए आवश्यक था (मूलाचार ७-३३-३४)। श्रीमद् भट्टाकलंक ने इस विषय पर विशेष तत्वार्थराजवार्तिक में दिया है। आचार्य वटटकेर ने बतलाया है कि पहले और अंतिम तीर्थंकर का धर्म अपराध होने और न होने की अपेक्षा न करके प्रतिक्रमण सहित प्रवर्तता है, पर मध्य के