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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
कथन से काशी के उग्रों और विदेह के लिच्छवियों की एकता का समर्थन होता है। ज्ञातृवंशियों से भी इनकी एकता रही ( देखिये Political History of Ancient India, Vol. 12, p. 99). बौद्ध जातकों में जो राजाओं का कथन आया है उनमें एक विस्ससेन भी है। डा. भण्डारकर ने पुराणों के विश्वकसेन और जातकों के विस्ससेन को एक ठहराया था। जैन साहित्य में पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन या अस्ससेण बतलाया है. जो न तो जातकों में, न हिन्दू पुराणों में उपलब्ध है। पार्श्वनाथ पूजन (विगत शताब्दी) में यह नाम विस्ससेन दिया है । " तहां विस्ससेन नरेन्द्र उदार” | इतना परिवर्तन सांकेतिक है 1
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इतिहास में नाग जाति प्रसिद्ध है । वैदिक आर्य नागों के बैरी थे। नाग जाति असुरों की एक शाखा थी जो उनकी रीढ़ के तुल्य थी । नागपुर में उनके भग्नावशेष प्राप्य हैं। नागों का राजा तक्षक नग्न श्रमण हो गया था। जब नाग लोग गंगा की घाटी में बसते थे तो एक नाग राजा के साथ वाराणसी की राजकुमारी का विवाह हुआ था (Glimpses of Political History, R.L. Mehta, p. 65 ) । अत: वाराणसी के राज घराने के साथ नागों का कौटुम्बिक सम्बंध भी था । गंगा की घाटी में ही (अहिक्षेत्र) तप करते हुए पार्श्वनाथ की उपसर्ग से रक्षा नागों के अधिपति ने की थी।
अत: शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद पार्श्वनाथ के समकालीन प्रतीत होते हैं। जिनमें प्रथम बार तापसों और श्रमणों के नाम मात्र मिलते हैं (४-३-१२)। याज्ञवल्क्य जनक से आत्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि इस सुषुप्तावस्था में श्रमण अश्रमण और तापस अतापस हो जाते हैं। वैदिक आर्य यज्ञों के प्रेमी थे। यज्ञ का उद्देश्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति एवं वृद्धि था। वेदों के मंत्रयुग के पश्चात् ब्राह्मणयुग आया जिसमें पुरोहितों की शक्ति बहुत बढ़ी। इसके पश्चात् उपनिषदों में ही पुनर्जन्म और कर्म फलवाद का विवरण मिलता है। पं. कैलाशचन्द सिद्धान्त शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास (पूर्व पीठिका, द्वितीय सं. १९८६, श्री गणेश वणी संस्थान, वाराणसी) पृ. १०६ पर लिखते हैं: