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प्रथमानुयोग में तीर्थंकर पार्श्वनाथ
२३१ तथापि उन्होंने उसे निस्सार मान अष्टांगिक मार्ग अपनाया जो सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि रूप था, जो पार्श्वनाथ के चार यामों को पूर्ण रूप से स्वीकार कर चुकी था (Kaushambi, Parsvanatha Caturyama, Bombay, pp. 24 et. seq.). __अत: यदि भगवान् पार्श्वनाथ सर्वज्ञ थे तो उनके संघ में वही ज्ञान रहा होगा जो द्वादशांग वाणी रूप एवं पूर्वो रूप रहा होगा। साथ ही जो कठिनतम गणितमय कर्म सिद्धान्त तथा उसके भी परे जो ज्ञान था वह भी उन्हें उसी परम्परा से प्रवाह रूप में, केवलज्ञान के पूर्व, प्राप्त हुआ होगा जो महावीर एवं गौतम को साधना काल में प्राप्त हुआ होगा। उसका कुछ अंश आचार्य भद्रबाहु एवं दीक्षित मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा षट्खण्डागम, कषाय प्राभृत, तिलोयपण्णत्ती, वृहद्धारा परिकर्म, आदि को लिपिबद्ध किया गया होगा, प्रतीत होता है। क्यों कि ब्राह्मी लिपि या सुन्दरी लिपि अथवा घनाक्षरी एवं हीनाक्षरी के आविष्कार का समय वही है। इसके पूर्व कोई भी शिलालेख अप्राप्य है, तथा मेगास्थनीज भी भारत में निरक्षरता का उल्लेख करता है। वस्तुत: उस युग में सभी भारतीय साहित्य श्रुत, स्मृति रूप चला आ रहा
था।