________________
जैन स्तोत्र और भगवान पार्श्वनाथ
१८१ ___अर्थात् जीव स्तव' और 'स्तुति' रूप मंगल से ज्ञान, दर्शन, चरित्र की बोधि का लाभ प्राप्त करता है। ज्ञान दर्शन चरित्र के बोधिलाभ से सम्पन्न व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है या वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। ___ आचार्य समन्तभद्र ने स्तुति को प्रशस्त परिणाम उत्पादिका कहा है - 'स्तुति: स्तोतुः साधो: कुशल परिणामाय स तदा । विद्वानों ने 'पूजाकोटिसमं स्तोत्रम्' कहकर एक स्तोत्र के फल को एक करोड़ पूजा के फल के समान बताया है। . स्तोत्र माठ से पुण्य का अर्जन केवल मुनष्य ही नहीं देवता भी करते हैं। नन्दीश्वर द्वीप के बावन मिनालयों में देव सदैव पूजा अर्चना किया करते हैं। ऐसे में स्तोत्रादि का पाठ स्वभाविक ही है। पं. जुगल किशोर मुख्तार ने भावपूजा को स्तुति ही कहा है। इस सन्दर्भ में सबसे बड़ा प्रमाण आ. मानतुंग का है। वे भक्तामर में कहते हैं - मैं उस जिनेन्द्र की स्तुति करता हूं, जो देवताओं द्वारा चित्त को हरण करने वाले स्तोत्रों के द्वारा संस्तुत हैं। .. .: 'य: संस्तुत: सकल वाङ्मय तत्त्वबोधा -
. दुदभूत बुद्धिः पटुभिः सुरलोकनाथैः ।। .. आचार्य समन्तभद्र ने स्तोत्र का उद्देश्य पापों को जीतना बताया है -
श्रीमज्जिनपदाभ्यासं प्रतिपद्याऽऽगसां जये।
कामस्थान प्रदानेशं स्तुतिविद्यां प्रसाधये । ..' आचार्य मानतुंग ने भी स्तुति को पापनाशक बताया है - . ... त्वत्संस्तवेन भव सन्तति सार्बबहं ।। _ पापं क्षणत् क्षयमुपैति शरीर भाजाम्
इतना ही नहीं भक्ति या स्तोत्र पाठादि से तीर्थकर प्रकृति का भी बन्ध होता है। जैन साहित्य में तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध के जो १६ कारण बताये गये हैं, उनमें एक कारण अभीक्ष्णज्ञानोपयोग भी है। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगलक्षणं करते हुए लिखा गया है