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भट्टारकं सकलकीर्ति और उनका पार्श्वनाथचरितम् मरुभूति, वज्रघोष हाथी, सहस्रार स्वर्ग का देव शशिप्रभ, अग्निवेग विद्याधर, अच्युत स्वर्ग का देव विद्युत्प्रभ, वज्रनाभि चक्रवर्ती, मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र, आनंन्द राजा और आनत स्वर्ग के देव रूप का विवेचन किया गया है। तदनन्तर दशम स्वर्ग में काशी के महाराज विश्वसेन और उनकी प्राणप्रिया ब्राह्मी से कुमार पार्श्व के जन्म होने से पूर्व देवों द्वारा रत्नवृष्टि आदि और ग्यारहवें सर्ग से तेइसवें सर्ग तक भगवान् के गर्भ-जन्म, जन्माभिषेक, कुमार द्वारा आभूषणों को धारण करना और आनन्द नामक नाटक खलना, बालक्रीडा एवं वैराग्योत्पत्ति, अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन, दीक्षा वर्णन, केवलज्ञानोत्पत्ति, समवसरण रचना, गणधरों द्वारा विविधप्रश्न, भगवान् द्वारा तत्त्वोपदेश एवं विविध कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों के विवेचन, भगवान् पार्श्व का विहार और अन्त में मोक्ष-गमन का क्रमश: वर्णन किया गया है।
धर्म का सेवन हितकारी
__ भट्टारक सकंलकीर्तिकृत प्रस्तुत ‘पार्श्वनाथचरितम्' पर समग्र दृष्टि • से विचार करने पर ज्ञात होता है कि कवि ने भगवान् पार्श्वनाथ के समग्र जीवन और मुनिधर्म का विवेचन किया है। कवि का मानना है कि जिस प्रकार जगत् में चतुर मनुष्यों के द्वारा कार्य की सिद्धि के लिये सेवक का पालन किया जाता है उसी प्रकार ग्रास मात्र के दान से राग के बिना शरीर का पालन करना चाहिये ।१२ शरीर का चाहे पोषण किया जाये अथवा शोषण वह अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होता है। अत: मुक्ति प्राप्ति के लिये उसका सम्यक् प्रकार से शोषण करना अर्थात् अन्त समय में सल्लेखना आदि धारण करना ही श्रेष्ठ है।३ क्योंकि संसार में दु:ख की ही प्रबलता है, कोई सुखी नहीं है। अत: धर्म का सेवन करना ही हितकारी है। धर्म विविध प्रकार से पापों को हरने वाला है, मुक्ति रूपी स्त्री को देने वाला है, अनन्त सुख का सागर है, अत्यन्त निर्मल है, अभिलषित पदार्थों का दाता है, समस्त लक्ष्मियों का पिता है, अनन्त गुणों को देनेवाला है, तीर्थंकर की विभूति का दायक है और चक्रवर्ती तथा इन्द्र के पद आदि को प्रदान करने वाला है।