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अपभ्रंश साहित्य में पार्श्वनाथ
आचार्य यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णत्ति और आचार्य गुणभद्र रचित उत्तरपुराण रहा। इनमें आगत घटनाओं को संकोच और विस्तार
पूर्वक प्रस्तुत किया गया है। ५. अपभ्रंश भाषा में सृजित ग्रन्थों के सर्वेक्षण से जिन बारह ग्रन्थों का
उल्लेख हुआ, उनमें से तीन महाकाव्य प्रकाशित, छह अप्रकाशित और
तीन अनुपलब्ध हैं। ६. ये ग्रन्थ प्राचीन भारतीय संस्कृति, भूगोल और इतिहास के धरोहर हैं। ७. उपयुक्त विषयक ग्रन्थों की विभिन्न भण्डारों में विद्यमान पाण्डुलिपियों
को पश्यतो हरा चूहों, दीमक आदि द्वारा हजम कर जाने का भय है, इसलिए अनुपलब्ध और अप्रकाशित उपयुक्त ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों को खोजने और प्रकाशित कराने का निर्णय इस गोष्ठी की महत्वपूर्ण
उपलब्धि के रूप में करना चाहिए। संदर्भ : १. . (क) धर्ता धरणनिधूतं पर्वतोद्धरणासुरः ।
त्रयो विंशस्य तीर्थस्य पार्यो विजयतां विभुः ।।
___ आचार्य जिनसेन : हरिवंश पुराण, १/२५ . (ख)
.. तेवीसमु जिणु तित्थंकरु पाव खयंकर पासणाह ज़गसामिउ ।। .. . आ. पद्मकीर्ति : पासणाहचरिउ, १५/८/१२ २. डॉ. राधाकृष्णन : भारतीय दर्शन (हिन्दी) भाग १, पृ. २६४. ३. हिन्दी अनुवाद, भाग १, अध्याय ६, पृ. १७८. ४. भारतीय दर्शन की रूप रेखा, पृ. १५६. ५. भारतीय दर्शन, पृ. ३०. ६. भारतीय दर्शन, पृ. ९६. ७. . (क) आ. यतिवृषभ, तिलोय पण्णत्ति, ४/५७६. . (ख) आ. गुणभद्र ने उत्तरपुराण, ७३/९३ में और आ. पद्मकीर्ति ने पासणाहचरिउ .
___ में १७/१८/४ में यह संख्या ८३५० बतलाई है।
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