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काशी की श्रमण परम्परा और तीर्थंकर पार्श्वनाथ
७३ के साथ ही असुरों का पतन भी हो गया। जब नाग लोग गंगा घाटी में बसते थे, तो एक नाग राजा के साथ काशी की राजकुमारी का विवाह हुआ था। अत: काशी के राजघराने के साथ नागों का कौटुम्बिक संबंध था।१८
... नागजाति एवं नाग पूजा का इतिहास अभी तक स्पष्ट नहीं हआ है। विद्वानों का मत है कि नागजाति और उसके वीरों के शौर्य की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए ही नागपूजा का प्रचलन हुआ है। पंडित बलभद्र जैन ने नागजाति और नागपूजा को श्रमण परम्परा के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के साथ संबंध जोड़ते हुए यह संकेत दिया है कि सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों के ऊपर नागफण का प्रचलन सम्भवत: इसी लिए हुआ कि नागजाति की पहचान हो सके। सर्पफणांवली युक्त प्रतिमाएं मथुरा आदि में प्राप्त हुई हैं। नागपूजा का प्रचलन पार्श्वनाथ की धरणेन्द्र-पद्मावती द्वारा रक्षा के बाद से हुआ है। इस प्रकार यक्षपूजा का संबंध भी धरणेन्द्र-पद्मावती से है।
पुरातत्व एवं जैन श्रमण परम्परा ... श्रमण परम्परा के महत्वपूर्ण अवशेषों का काशी की भूमि से प्राप्त होना भी श्रमण परम्परा के स्रोत का प्रबल साक्ष्य है। भारत कला भवन,
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में पुरातत्व संबंधी अनेक बहुमूल्य सामग्री • संग्रहीत है.। इसमें पाषाण और धातु की अनेक जैन प्रतिमाएं हैं, जिन्हें
पुरातत्वज्ञों ने कुषाण काल से मध्य काल तक का माना है। * उक्त सामग्रियों में कुषाणयुगीन सप्तफणावली युक्त तीर्थंकर का शीर्ष भाग है, जो मथुरा से. उत्खनन में प्राप्त हुआ था। राजघाट के उत्खनन से प्राप्त सप्तफणावली युक्त एक तीर्थंकर प्रतिमा है। इस फणावली के दो फण खण्डित हो गए हैं। सिर के इधर-उधर दो गज बने हुए हैं। उनके ऊपर बैठे देवेन्द्र हाथों में कलश धारण किए हुए हैं। फणावली के ऊपर भेरी ताड़न करता हुआ एक व्यक्ति अंकित है। यह मूर्ति ११वीं शताब्दी की अनुमानित की गई है। पंचफणावली से यह सुपार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतीत होती
है।