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जैन एवं जैनेतर साहित्य में पार्श्वनाथ एवं चौबीसवें तीर्थंकर महावीर के २५० वर्ष पूर्व हुआ था। भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म सुदीर्घ प्रागैतिहासिक एवं अनुश्रुतिगम्य इतिहास काल के अन्त में और नियमित इतिहास के प्रारंभ में हुआ था, जिसकी शुरूआत महाभारत युद्ध के बाद की मानी जाती है। - जैन परम्परा का अंतिम प्रतापी सम्राट ब्रह्मदत्त, काशी में उरग (नाग वंशी) व्रात्य क्षत्रीय था। इसका उल्लेख अर्थववेद एवं साहित्य में भी आया है। डॉ राय चौधरी, प्रभृति विद्वान उनकी ऐतिहासिकता में कोई सन्देह नहीं मानते हैं। इस वंश में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था। ये काशी के राजकुमार थे। डा. राय चौधरी के अनुसार - काशी इस काल में भारत का सर्वमुख राज्य था और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार - काशी के ये राजे वैदिक धर्म और यज्ञों के विरोधी थे। प्राचीन बौद्ध अनुश्रुति में इनका असभ नाम से उल्लेख हुआ है तथा महाभारत में भी अश्वसेन नामक एक प्रसिद्ध तत्कालीन नाग नरेश का उल्लेख मिलता है। पार्श्व का जन्म ई. पू. ८७७ में हुआ। ___तीर्थंकर पार्श्व का जन्म उक्षर वैदिक काल, उपनिषदयुग, श्रमण-पुनरुद्धार
युग अथवा नाग-पुनरुत्थान युग आदि विभिन्न नामों से सूचित महाभारत, महावीर और बौद्ध के मध्यवर्ती (१४००-१६०० ई. पू.) काल के प्राय: तृतीय . पाद में हुआ था। ये बाल ब्रह्मचारी रहे। अत: उस युग के सांस्कृतिक
इतिहास में उनका महत्व पूर्ण स्थान है। .. दुर्द्धर तपश्चरण करने के फलस्वरूप इन्हें केवल ज्ञान एवं अर्हन्त पद की प्राप्ति हुई। इसके पश्चात् ७० वर्ष तक जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए देश-देशान्तर में विहार करके धर्म का प्रचार करने में बिताया। अन्त में सौ वर्ष की आयु में ई.पू. ७७७ में अपने ३६ शिष्यों के साथ सम्मेद शिखर में विराजमान हो गये एवं वहां से निर्वाण प्राप्त किया। वह पर्वत आज भी पारसनाथ पर्वत के नाम से विख्यात है। बरेली जिले का प्राचीन अहिच्छत्र नामक स्थान पार्श्वनाथ की विशिष्ट तपस्या भूमि रही थी। पार्श्वनाथ का विशिष्ट लाञ्छन नाग एवं वर्ण श्याम रहा बताया जाता है।