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काशी की श्रमण परम्परा और तीर्थंकर पार्श्वनाथ
७५ सड़क पर स्थित है। “बाँस फाटक" जिसे आचार्य समन्तभद्र की उस चमत्कारिक घटना के रूप में स्मरण किया जाता है जो आचार्य समन्तभद्र द्वारा स्वयभूस्तोत्र की रचना का कारण बना था।
सारनाथ
महात्मा बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली रूप में प्रसिद्ध यह स्थल जैन परम्परा के ११वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के जन्मस्थली से सम्बद्ध है। इसका पूर्व नाम “सिंहपुर" था। जैन मंदिर के निकट ही एक स्तूप है जिसकी ऊँचाई १०३ फुट है। मध्य में इसका व्यास ९३ फुट है। इसका निर्माण सम्राट अशोक द्वारा करवाया गया था। जैन परम्परा का यह विश्वास है कि भगवान श्रेयांसनाथ की जन्म नगरी होने के कारण इसका निर्माण सम्राट सम्प्रति ने कराया होगा। स्तूप के ठीक सामने सिंहद्वारा है, जिसके दोनों स्तंभों पर सिंहचतुष्क बना है। सिंहों के नीचे धर्मचक्र है जिसके दाई
ओर बैल और घोड़े की मूर्तियों का अंकन है। . भारत सरकार ने इस स्तंभ की सिंहत्रयी को राजचिन्ह के रूप में • स्वीकार किया है। और धर्मचक्र को राष्ट्रध्वज पर अंकित किया है। जैन • परम्परा के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर का एक विशेष चिन्ह होता है और जिसे
प्रत्येक तीर्थंकर प्रतिमा पर अंकित किया जाता है। इसी चिन्ह से यह ज्ञात होता है कि यह अमुक तीर्थंकर की प्रतिमा है। यह चिन्ह मांगलिक कार्यों और मांगलिक वास्तुविधानों में मंगल चिन्ह के रूप में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरणार्थ तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक चिन्ह है, जिसे सम्पूर्ण भारत में जैन ही नहीं वरन् जैनेतर सम्प्रदाय भी समस्त मांगलिक अवसरों पर प्रयोग करते हैं। सिंह महावीर का चिन्ह है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का वृषभ और अश्व तृतीय तीर्थंकर सम्भवनाथ का चिन्ह है। इसी प्रकार धर्मचक्र तीर्थंकरों और उनके समवशरण का एक आवश्यक अंग है। तीर्थरकर के केवल ज्ञान के पश्चात् जो प्रथम देशना होती है उसे धर्मचक्र प्रवर्तन की संज्ञा दी जाती है। यही कारण है कि प्राय: सभी प्रतिमाओं के सिंहासनों और वेदियों में धर्मचक्र बना रहता है।