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काशी की श्रमण परम्परा और तीर्थंकर पार्श्वनाथ
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ' परम्परागत उल्लेखों के अनुसार तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी के तत्कालीन राजा अश्वसेन के पुत्र थे। माता का नाम वामादेवी था। अश्वसेन इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय थे। जैन साहित्य में पार्श्वनाथ के पिता का नाम अश्वसेन या अस्ससेण मिलता है, किन्तु यह नाम न तो हिन्दु पुराणों मे मिलता है और न जातकों में। गुणभद्र ने उत्तरपुराण में पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसेन दिया है। जातकों के विस्ससेन और हिन्दू पुराणों के विश्वकसेन के साथ इसका साम्य बनता है। डा. भण्डारकर ने पुराणों के विश्वक्सेन और जातकों के विस्सेन को एक माना है।४ ... इतिहासज्ञों ने पार्श्वनाथ का काल ई.पू. ८७७ वर्ष पूर्व निर्धारित किया है। इस ई.पू. ८७७ में काशी की तत्कालीन सांस्कृतिक स्थिति का आकलन पार्श्वनाथ के जीवन एवं उनसे संबंधित घटनाओं से किया जा सकता है। पार्श्व जन्म से ही आत्मोन्मुखी स्वभाव के थे। उस समय यज्ञ-यागादि और पंचाग्नि तप का प्राधान्य था। पार्श्व के जीवन का यह प्रसंग कि उन्होंने .गंगा के किनारे तापस को अग्नि में लकड़ी को डालने से रोका और कहा कि जिस लकड़ी को जलाने जा रहे हो उसमें नाग युगल का जोड़ा है। इसे जलने से रोको। तपस्वी के न मानने पर उससे पुन: कहा कि तप के मूल में धर्म और धर्म के मूल में दया है वह आग में जलने से किस प्रकार दया सम्भव हो सकती है? इस पर साधु क्रोधित होकर बोला--तुम क्या धर्म को जानोगे, तुम्हारा कार्य तो मनोविनोद करना है। यदि तुम जानते हो तो बताओ इस लक्कड़ में जीव कहां है? यह सुनकर कुमार पार्श्व ने अपने साथियों से लक्कड़ को सावधानीपूर्वक चिरवाया, तो उसमें से नाग.युगल बाहर निकला।
इस घटना की सत्यता पर प्रश्न हो सकता है, परन्तु इतना निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि उस समय ऐसे तपों का बाहुल्य था और बिना सोचे-समझे आहुतियां दी जाती थीं। तीर्थंकर पार्श्व और महावीर के काल में केवल २५० वर्ष का अन्तराल है। इस अवधि में यज्ञ-यागादि की