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__तीर्थंकर पार्श्वनाथ क्योंकि रागादि रूप अशुभ परिणाम तत्त्वज्ञान के प्रतिबन्धक होते हैं। अत: उसका ज्ञान दूषित होने से वह चारित्र को स्तरहीन मानता है। इसी से वह उसमें आदरभाव रखने के कारण चारित्र से च्यूत होता है। इसी से उसे चारित्रभ्रष्ट कहा है। चारित्र भ्रष्ट होकर वह पार्श्वस्थ मुनियों की सेवा में लग जाता है। ___मूलाचार में पाप श्रमण के पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसन्न और मृग चारित्र ये पाँच भेद किए गए हैं। ये सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अयुक्त तथा धर्मादि में हर्षरहित होते हैं। मूलाचार वृत्ति में कहा है - संयत गुणेभ्य: पाश्वे अभ्यासे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः ।।
मूली वृत्ति: ७/९६ संयत के गुणों के पार्श्व में स्थित रहने वाले श्रमण पार्श्वस्थ कहलाते हैं। चारित्रसार के अनुसार
यो वसति प्रतिबद्ध उपकरणोंपजीवी च श्रमणानाम पार्वे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः।
चारित्रसार, १४३/३. जो मुनि वसतिकाओं में निवास करते हैं, उपकरणों से ही अपनी जीविका चलाते हैं, परन्तु मुनियों के समीप रहते हैं, उन्हें पार्श्वस्थ कहते
___ व्यवहार सूत्र के प्रथम उपदेश में पार्श्वस्थ के तीन नाम दिए हैं - पार्श्वस्थ, प्रास्वस्थ और पाशत्थ। (जो साधु) दर्शन, ज्ञान और चारित्र के पास में रहता है, किन्तु उसमें संलग्न नहीं होता, उसे पार्श्वस्थ कहते हैं। प्र. अर्थात् प्रकर्ष से ज्ञानादि में निरुद्यमी होकर रहता है, इसलिए प्रास्वस्थ कहते हैं तथा पाश बन्धन को कहते हैं। मिथ्यात्व आदि बन्ध के कारण होने से पाश हैं, उनमें रहने से उसे पाशत्थ कहते हैं१३ । , ___ भावपाहुड में कहा गया है कि हे आत्मन्! कुभावना के परिणाम रूप बीज के द्वारा अनादिकाल से पार्श्व आदि भावनाओं का अनेक बार चिन्तन कर तू दु:ख को प्राप्त हुआ है।